ग़ज़ल
इंसानियत को रोते ज़ार-ज़ार देखकर,
हैरान हूँ नफरत की मैं दीवार देखकर
परवरदिगार भी है शर्मसार खुद से आज,
ये मजहबों के बीच की दरार देखकर
शायद शहर में कल भी कुछ अच्छा नहीं हुआ,
लगता यही है आज का अखबार देखकर
मांगी थी जिनकी खैरियत रो-रो के दुआ में,
वो तो उछल पड़े मुझे बीमार देखकर
अभी तो इब्तिदा है आगे आगे देखना,
क्यों डर रहा है मुश्किलें दो-चार देखकर
मुझे जानते हुए भी वो अनजान बन गया,
उसने मुझे देखा नहीं सौ बार देखकर
— भरत मल्होत्रा
बहुत शानदार ग़ज़ल !