ये जीवन लघु सरिता सा…
ये जीवन लघु सरिता सा
कभी छलका सा कभी रीता सा।
कभी उदगारों के भाव विह्ल
कभी सत्य सार्थक गीता सा॥
कभी बाढ वेग सा उद्वेलित
कभी प्रेम परायण आव्हेलित।
कभी बनकर धारा तीव्र बहे
कभी ग्रीष्म रितु सा स्वयं शोषित॥
कभी मेघों का मलहार राग
कभी दावानल सी विकट आग।
कभी चैन की बंसी के स्वर सा
कभी कहता है बस भाग भाग॥
कभी मधुर सुगंधित फूलों सा
कभी चुभता कर्कश शूलों सा।
कभी सुखमय सब कुछ लगता है
कभी लगे प्राश्चित भूलों का॥
कभी सत्कर्मों की आवृति
कभी कुछ कर्मों की प्रतिवृति।
कभी सब अनूकूल सा लगता है
कभी सब लगता है अतिवृति॥
कभी जीवन गीत सुमंगल सा
कभी अवसादों के जंगल सा।
कभी प्रेम का गहरा सागर तो
कभी संबंधो के दंगल सा॥
कभी उदभव नये विचारों का
कभी सामना है प्रतिकारों का।
कभी हार जीत के मिलते हैं
कभी समय निमित बस हारों का॥
कभी अपनों का अनुराग भी है
इस रोशनी में पर आग भी है।
कब कहां लगे इस पर निर्भर
रंग रंग भी है ओर दाग भी है॥
संचित सतकर्म सदा साथी
जैसे दीपक के संग बाती।
उस पर भी भाग्य विधाता की
संस्तुती शाश्वत बन जाती॥
कभी रीत नही कभी प्रीत नही
कभी मन को मन का मीत नही।
जीवन हैं सुख- दुख का संगम
ये केवल जीत का गीत नही॥
हैं वक्त बहुत बलवान समझ
इसके हाथों है मान समझ।
ये खाली दामन को भरदे
ओर भरे को करदे रीता सा…..
ये जीवन लघु सरिता सा…..
सतीश बंसल