मेरी कहानी 92
अब काम पर मैं रोजाना जाता था और कुलवंत के लिए भी यह एक सधाह्र्ण बात हो गई थी. मेरे काम की शिफ्टें ऐसी होती थीं कि मुझे काफी वक्त मिल जाता था, इस लिए काम से आ कर मैं और कुलवंत बाहर घूमने चले जाते. इस से एक तो यह फायदा हुआ कि कुलवंत बहुत सी औरतों को जानने लगी थी और दुसरे एरिये की वाक्फिअत भी हो गई थी. अभी कुछ ही महीने हुए थे कि हमारे घर में एक ख़ुशी आ गई. हमें पता चला कि कुलवंत माँ बनने वाली थी. माँ बाप बनने का अहसास भी एक अजीब बात होती है. हम फूले ना समाते, हमारे घर एक नया महमान जो आने वाला था. कुछ महीने बाद जसवंत भी शादी करा के इंडिया से आ गिया था लेकिन उस की पत्नी अभी इंडिया ही थी. कुछ साल बाद बहादर भी शादी के लिए इंडिया चले गिया था और कुछ महीने इंडिया रह कर शादी करा के आ गिया था लेकिन उस की पत्नी कमल भी कुछ अरसा इंडिया में ही रही थी. अब यह एक इंकलाब ही आ गिया था औए धीरे धीरे सभी लड़के इंडिया जा कर शादियां रचा रहे थे।
कुछ समय पहले मैं लिख चुक्का हूँ कि १९६२ के इम्मीग्रेशन एक्ट से कुछ समय पहले सकूलों कालजों के लड़के ही ज़िआदा आये थे और अब एक एक करके सभी इंडिया आ कर शादियां करा रहे थे. कुछ तो अपनी पत्निओं को साथ ही ले आते थे और कुछ पत्नीआं बाद में आती थीं. जो लोग हम से बहुत पहले आये थे, वोह ज़िआदा तर शादी शुदा ही होते थे और कुछ साल काम करके वापस इंडिया चले जाते थे लेकिन जो अब लड़के आये थे वोह शादी करा के या तो पत्निओं को साथ ही ले आते थे या उन की पत्नीआं कुछ अरसा बाद आ जाती थीं. बस यह नया ट्रैंड ही ऐसा हुआ कि सब ने हमेशा के लिए राणी माँ की गोद में रहना सवीकार कर लिया था. दिनबदिन हमारी आबादी बढ़ने लगी थी और यह ही कारण था कि अँगरेज़ लोग हमारे खिलाफ होते चले जा रहे थे ख़ास कर अँगरेज़ लड़के तो हमारे खिलाफ बहुत होते थे और कभी कभी छोटी सी बात को ले कर हमारे लोगों को पीट भी जाते थे।
1968 का वर्ष हमारे लिए बहुत बुरा था। यह वोही वर्ष था जब वुल्वरहैम्पटन साऊथ वैस्ट के हलके से एक टोरी ऐम्प पी इनोक पावल (ENOCH POWEL ) अंग्रेज़ों को भड़का रहा था जिस की वजह से एक पार्टी नैशनल फ्रंट उभर कर आ गई। इस पार्टी के मैम्बर आम गोरे लड़के ही थे जिन को सकिन हैड भी कहते थे क्योंकि यह अपने सरों को शेव करके रखते थे, टाइट ट्राऊज़र्ज़ और बड़े बड़े बूट पहनते थे। इन में से ही एक और गुंडा ग्रुप निकल कर आ गिया था जिन को हैल्ज़ ऐनज़लज़ बोलते थे, इन के पास बड़े बड़े पावरफुल मोटर साइकल होते थे, इन के शरीर टैटू से भरे हुए होते थे। इन की तरफ देख कर ही डर लगता था। इन के मोटर साइकल इतनी जोर से गूंजते थे कि गोरे भी घबरा जाते थे। हमारे लोगों को गालिआं निकाल कर बेइज़त करना या पीट देना इन के लिए मामूली बात थी। अप्रैल १९६८ का महीना आ गिया था, एक महीने तक हमारे घर में नया मैह्मान आने वाला था लेकिन जो बाहर हो रहा था, मैं कुलवंत को बताना नहीं चाहता था।
अप्रैल 1968 की इनोक पावल की एक स्पीच ने सारे इंग्लैण्ड को हमारे खिलाफ कर दिया था । इतहास में यह स्पीच एक बहुत प्रसिद्ध स्पीच है जिस को RIVARS OF BLOOD कहा जाता है। एक साल पहले पार्लिमेंट में एक बिल पेश किया गिया था जो रेस रीलेशन्ज़ के नाम से जाना जाता था। इस का मकसद यह था कि जो बाहर से बिदेशी लोग आये हुए थे उन के साथ सहनशीलता बड़ाई जा सके और अगर किसी के साथ धक्का या बेइंसाफी हो तो उस को पूरा इन्साफ मिले लेकिन इनोक पावल ने एक स्पीच बर्मिंघम में दी, जिस में उस ने कहा ” बाहर से लोग आ कर हमारे लोगों की नौकरियां छीन रहे हैं, उन की कल्चर का हम पर बुरा प्रभाव बड़ रहा है, एक दिन इस देश में बहुत खून खराबा होगा, हमारी कौम अपनी अर्थी खुद बना रही है, इस देश में खून की नदीआं बहने लगेंगी”. यह स्पीच बहुत लम्बी थी और इस स्पीच के साथ ही हमारे खिलाफ नफरत बड़ गई थी ।
आम लोग तो फैक्टरियां में काम करते थे और उन पर तो ज़्यादा असर नहीं पड़ा लेकिन जितने हमारे लोग बसों पर काम करते थे, उन पर यह असर बहुत पड़ा क्योंकि हर दम हम पब्लिक के कॉन्टैक्ट में ही रहते थे, ख़ास कर जब रात की शिफ्ट होती थी तो यह गोरे लड़के लड़किआं जब क्लब्बों से निकलते थे तो अपनी शराब हम पर ही निकालते थे। जब हम किराया लेने के लिए उन के पास जाते तो हम को बहुत तंग करते, कभी कहते यह देगा, कभी कहते वोह देगा, कोई लड़की की ओर इशारा कर देता। आखर में किराया दे तो देते लेकिन बहुत दुखी करते। कई दफा बस पर बहुत शोर मचाते, बस की घँटीआं बजाने लगते जिस से ड्राइवर भी तंग आ जाता। मेरा ड्राइवर स्कौच ( लोहे का एक किसम का पीस जो खड़ी बस के वील के नीचे रखा जाता है ताकि बस रिडने न लगे ) लेकर बस की छत पर आ जाता और लड़ने के लिए तैयार हो जाता और सब उस के तगड़े शरीर को देख कर चुप हो जाते। इस ड्राइवर हैरी बीवर ने हर वक्त मुझे बचाया था ।
हमारे सभी लोग पावल की स्पीच से हिल गए थे और सोच रहे थे कि हम को अब यहां से जाना पड़ेगा। यहां एक इंडियन कॉमिडियन है, जिस का नाम है राजीव भास्कर, उस ने भी 2010 में एक किताब लिखी है जिस में उस ने लिखा है कि उस के माँ बाप ने भी अटैचीकेस बाँध लिए थे कि अब उन को यह देश छोड़ कर वापस इंडिया जाना पड़ेगा। हमारे बहुत से लोगों ने अपने मकान सेल पर लगा दिए थे लेकिन लेने वाला कोई नहीं था। टोरी पार्टी में उस वक्त लीडर होता था एडवर्ड हीथ। उस ने इनोक पावल को इसी स्पीच के कारण पार्टी से बाहर निकाल दिया क्योंकि सारी दुनीआं में इंगलैंड का अकस खराब हो रहा था । इनोक पावल की सपोर्ट में टिल्बरी डॉकयार्ड और अनेक जगह के गोरे वर्करों ने स्ट्राइक कर दी। सोशलिस्ट पार्टी के मैम्बर इनोक पावल के खिलाफ मुजाहरे करने लगे। हमारी इंडिया से आई औरतें भी इंग्लिश ना आने की वजह से गोरी औरतों की गालिआं सह लेतीं क्योंकि उन को तो इंग्लिश मर्दों से भी कम आती थी।
अब तो यहां बच्चे जो पले बड़े हुए हैं वोह अंग्रेज़ों जैसे हो गए हैं लेकिन उस समय तो सभी इंडिया से ही आये थे। बहुत बातें मैं कुलवंत को ना बताता क्योंकि इन बातों का असर हमारे नए मेहमान पर पड़ सकता था। नए महमान आने से कुछ हफ्ते पहले मैंने चार साल पुरानी एक गाड़ी ले ली जो मैं कई दिनों से एक गैरेज जिस का नाम ATWOODS था ( अब यहां कुछ नहीं है )जो हमारे शहर के चैपलैश इलाके में थी, देख रहा था। गाड़ी बहुत अच्छी कंडीशन में थी जो उस वक्त मुझे 425 पाउंड में मिल गई। यह गाड़ी AUSTAN 1100 थी और इस का रजिस्ट्रेशन नंबर अभी भी मुझे याद है और यह होता था AJW 362B। चलाने में बहुत अच्छी और स्मूद थी। जब मैं घर ले कर आया तो कुलवंत बहुत खुश हुई। मुझे गाड़ी के बारे में कुछ गियान नहीं था लेकिन यह हमारा भागय ही था कि यह गाड़ी बहुत अच्छी निकली। कुलवंत भी अब खुश खुश रहने लगी।
11 मई का वोह दिन याद है जब कुलवंत को लेबर पेन्ज़ शुरू हो गई और मैंने एक टेलीफून बूथ जो हमारी रोड के आखर में ही था हस्पताल को टेलीफून कर दिया। आधे घंटे में एम्बुलेंस आ गई। कुलवंत के कपडे और नए बेबी के लिए कपडे हम ने पहले ही एक बैग में रख लिए थे। एम्बूलैंस कुलवंत को बीचस हस्पताल ले गई (यह हस्पताल चालीस साल पहले का बंद हो चुक्का है जो टैटनहाल रोड पर होता था ). रात भर मैं हस्पताल को टेलीफून करता रहा कि कुलवंत कैसी थी। नर्सें हंस कर कह देती ” dont worry, she is fine ” लेकिन मुझे चैन ना आता। सुबह को मैं काम पर चले गिया लेकिन दस वजे ही छुटी ले कर आ गिया। मैंने घर आ के टेलीफून बूथ से टेलीफून किया तो नर्स बोली, ” she just gave birth to a baby girl “. सुन कर मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा, यह 12 मई 1968 था और मरीज़ों के साथ मिलने के समय में मैं हस्पताल जा पहुंचा। कुलवंत एक छोटे से कमरे में एक बैड पर लेटी हुई थी और पास में ही एक छोटी सी कौट में हमारी बिटिआ पडी थी। यों ही मैं भीतर आया कुलवंत का चेहरा खिल गिया और साथ ही रो पड़ी, कहने लगी, ” मैं सोचती थी कि आप शायद बेटी का सुन कर नहीं आओगे “. यह किया बोल रही हो ? मैंने कहा और कौट से बेबी को उठा लिया और उस की ओर देखने लगा। कितनी पियारी थी, देख देख कर पर्सन हो रहा था मैं. कुलवंत के रोने का कारण मैं समझ रहा था क्योंकि वोह सभी बहनें ही थी और उन के एक भाई भी हुआ था लेकिन पैदा होने के बाद जल्दी ही इस दुनिआ से चले गिया था, भाई के लिए वोह सारी उम्र तरसती ही रही थीं। एक और कारण भी था और वोह था ऐसे कई किस्से हुए भी थे कि कुछ पुरष बेटी का सुन कर ही हस्पताल देखने नहीं आये थे, यह हमारे समाज की सोच की एक लाहनत है।
अब तो हस्पताल में माँ को ज़्यादा देर रखते ही नहीं हैं, अवल तो उसी दिन घर भेज देते हैं, नहीं दूसरे दिन अवश्य ही भेज देते हैं लेकिन उन दिनों कई कई दिन तक माँ और बच्चे को हस्पताल में रखते थे। कुलवंत के घर आने से पहले मैंने एक प्रैम खरीदी जो दूकान में सब से बैस्ट थी ( अब हम उस बात को याद करके हँसते हैं ). यह प्रैम बहुत बड़ी थी और बाद में इसी प्रैम को ले कर कुलवंत मार्किट को जाया करती थी और ऊपर बेटी को सुला कर निचे सारी मार्किट की शॉपिंग जिस में आलू प्याज़ के बैग और दुसरी सब्जीआं रख कर घर को आती थी और हमारा घर एक मील की दूरी पर होता था। इस प्रैम की फोटो कहीं एल्बम में है और जब कभी यह फोटो देखते हैं तो खूब हँसते हैं ( अब तो बहुत हलकी और प्लास्टिक की होती हैं). जिस दिन कुलवंत और बेबी ने घर आना था, मैंने प्रैम को खोल कर ऊपर का सीट वाला हिस्सा कार की पिछली सीट पर रखा और बीचस हस्पताल जा पहुंचा। कार पार्क में कार खड़ी की और नर्सिंग वार्ड में जा पहुंचा। कुछ जरूरी कागज़ात तयार करने के बाद एक नर्स बेबी को हाथों में लिए हमारे साथ कार पार्क में आई और बेबी को कार सीट पर पडी प्रैम में लिटा दिया और हमें बाई बाई कह दिया। हम घर की ओर चलने लगे। जब घर आये तो गियानी जी और जसवंत घर पर ही थे। गियानी जी बहुत खुश हुए और उसी वक्त हमारी बेटी का नाम भी रख दिया। नाम रखा गिया हरकीरत कौर भमरा। यह नाम हमें भी बहुत अच्छा लगा था। अब हमारा सारा धियान हमारी बिटिया की तरफ ही हो गिया था। यहां भूल ना जाऊं गियानी जी के सारे परिवार ने हमें इतना पियार दिया कि हम अभी तक मिलते हैं।
जसवंत को उस फैक्ट्री में काम मिला नहीं था यहां इंडिया जाने से पहले काम छोड़ कर गिया था। अब उस को कौलकास्ट फाऊंडरी में काम मिला था जो बहुत भारी था, लेकिन पैसे भी अच्छे थे। एक दिन अचानक इंडिया से गियानी जी को टेलीग्राम आ गिया कि जसवंत की पत्नी बलबीरो इंडिया से आ रही थी और हीथ्रो एअरपोर्ट पर पहुँचने वाली थी। मैं घर पर ही था और जसवंत को लेने उस की फाऊंडरी में जा पहुंचा और फाऊंडरी के मैनेजर को जा कर बताया कि मैं जसवंत को लेने आया था । मैनेजर ने मुझे कुर्सी पर बैठने के लिए बोला और खुद जसवंत को लेने फाऊंडरी के भीतर को चल पड़ा। पंद्रां मिनट बाद जसवंत मेरे सामने खड़ा था। उस का मुंह फाऊंडरी की काली राख से इतना काला था कि मैं उसे पहचान ना सका। मैंने उस वक्त ही पहचाना जब वोह बोला, ” किदां गुरमेल, की खबर है”. मैंने कुछ हंस कर कहा कि उस की पत्नी एअरपोर्ट पर पहुँचने वाली थी। यहां यह भी लिखना चाहूंगा कि इस फाऊंडरी को बुचड़ फाऊंडरी भी कहते थे क्योंकि यहां काम इतने भारी और गंदे थे कि कमज़ोर आदमी यहां काम कर ही नहीं सकता था और यहां का मैनेजर भी बहुत सख्त अँगरेज़ था जो इंडिया में फ़ौज में था और सैकंड वर्ल्ड वार में उस की एक टांग कट गई थी, इसी लिए हमारे लोग उस को लंगा (LAME ) बोलते थे। जसवंत ने बोला कि वोह कपडे बदल कर और मूँह हाथ धो कर वापस आता है। कुछ देर बाद जसवंत आ गिया और हम घर आ गए। जसवंत उसी वक्त ट्रेन ले कर लंडन हीथ्रो को चल पड़ा। लंडन उस के एक रिश्तेदार थे जो दूर के रिश्ते से जसवंत के भाई लगते थे। उस के पास गाड़ी थी और वोह दोनों एअरपोर्ट पर जा पहुंचे। जसवंत की पत्नी बलबीरो को लेकर वोह रात के बारह वजे हमारे घर आ गए।
हम अभी जाग ही रहे थे कि जसवंत की पत्नी बलबीरो के आने से घर में रौनक सी हो गई। बलबीरो काफी हंसमुख थी और आते ही ऐसे बातें कर रही थी, जैसे वोह बहुत देर से यहां रह रही थी। अब कुलवंत को भी साथ मिल गिया था। बलबीरो के आने से एक नए अधियाए का आगाज़ होने वाला था। एक दिन गियानी जी ने मुझे बताया कि उन्होंने अपने सारे परिवार के लिए भी स्पॉन्सरशिप भेज दी थी, यानी जसवंत के छोटे भाई कुलवंत सिंह, उस की दो बहने बंसो और छिंदी और उस की माँ। कुछ ही महीनों में सारा परिवार यानी जसवंत की माँ जिस को हम भी बीबी कहने लगे थे, दो बहने और भाई आ गए। घर में रौनक हो गई थी। इस में मज़े की बात यह है कि मेरे इस छोटे से घर में इतने लोग हो गए थे कि हम बहुत खुश हो गए थे। हमारी बेटी हरकीरत जिस को हम पिंकी कहने लगे थे, बीबी छिंदी बंसो बलबीरो ही संभालते थे। कुलवंत को कोई फ़िक्र ही नहीं था। यह ऐसे था जैसे पिंकी हमारी नहीं उन की थी। कभी कभी सोचते हैं कि अब छोटे से छोटे बच्चे को अपना इलग्ग कमरा चाहिए। इतने मैम्बर होते हुए भी हमारे घर में कभी झगड़ा नहीं हुआ था । इस पियार को ज़ाहर करने के लिए कोई अलफ़ाज़ नहीं हैं। यह कैसा पियार था कि ना तो हम उन के गाँव में कभी गए, ना ही ही वोह हमारे गाँव आये। वोह जाती के जट्ट और हम रामगढ़िये, फिर भी छिंदी बंसो मुझे सगे भाई की तरह मानती हैं और उन के बच्चे जो अब विवाहत हैं हमें मामा जी मामी जी कह कर बुलाते हैं। बस यह पिछले जनम का ही कोई हिसाब किताब कह सकते हैं।
चलता. . . . . . . . . . .
आदरणीय भाई साहब आप की कहानी का ये एपिसोड पड़ कर बहुत ख़ुशी हुई ख़ास कर जब बेटी के जनम के बाद, आप अपनी पत्नी को मिलने गए तो उनका चेहरा ख़ुशी से खिल गया और वो साथ में रो भी पड़ी ये सोच कर की शायद आप भी बेटी का सुन कर नहीं आओगे पर आप ने बिटिया को उठा कर बहुत प्यार दिया| भाई साहब जिस समय में बेटीओ के प्रति लोगो की सोच इतनी बुरी थी मैं तो कहती हु अब भी है , पर आप ने वहा बेटीओ के लिए मन में इतना प्यार रखा उन्हें इतना प्यार दुलार दिया आप की इस महान सोच को मेरा प्रणाम जी
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरी क़िस्त पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। नए मेहमान पिंकी के आने से आपका जीवन सफल हुआ और आपने कुदरती माता पिता होने का सुख अनुभव किया। ईश्वर द्वारा युवा दमबपत्तियों के लिए उत्पन्न करना और माता पिता को ख़ुशी देना संसार की सभी खुशियों से बेमिसाल है। वहां जो रंग वा नस्ल भेद आंदोलन चला उसकी कुछ गर्मी वा तपिश का अनुभव लेख की पंक्तियों को पढ़कर हुआ। आपने इस विपरीत समय में कितनी कठिनाइयां सहन की, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। ज्ञानी जी के परिवार से आप लोगो का घुलना मिलना शिक्षाप्रद है। जब एक विचार, एक जैसे भाव वा भावना, एक भाषा और एक सुख दुःख होता है तो परस्पर प्रेम वा सौहाद्र में वृद्धि होती है और विपरीत परिस्थितियों में कठिनाइयां एवं परेशानियां। यह प्रकृति का नियम हैं। हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।
मनमोहन भाई , आप के इस कॉमेंट से मन बहुत खुश हुआ . यहाँ तक हो सहे सब सच सच लिखने की कोशिश कर रहा हूँ ,जिंदगी के सुखद और दुखद लम्हें सब लिखने की कोशिश करूँगा .आप से हौसला अफजाई मिलती है ,धन्यवाद जी .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी आत्मकथा हमारे जीवन का अंग बन गई है। इसे पढ़कर मन को संतोष और प्रसनत्ता के साथ ज्ञान वर्धन भी होता है। सादर।
बहुत खूब भाईसाहब ! सारी किस्त पढकर बहुत अच्छा लगा। पिता बनना एक अलग ही तरह का अनुभव होता है। आपकी बाकी बातें भी रोचक हैं।
पावेल के आंदोलन का फिर क्या हुआ यह जरूर लिखना।
विजय भाई ,सही बात है ,पिता बनना भी एक मजेदार घटना ही होती है .ईनोक पावल की मुहिम धीरे धीरे डाई आऊट हो गई थी किओंकि उस को पार्टी से निकाल दिया गिया . लेकिन उस के हक में गोरे बहुत थे .कई जगह उस के हक में गोरे लोगों ने स्ट्राइक कर दी थी .ईनोक पावल बाद में अल्स्टर यूनिअनिस्ट एम पी बन गिया था जो एक और पार्टी थी .ईनोक पावल के बारे में अब भी कभी कभी बातें टीवी पर आती रहती है कि बहुत बातें उस की गलत थी ,कई गोरे लोगों के जो उस ने हवाले दिए थे वोह गोरे रिपोर्टरों को मिले ही नहीं थे .इस के बारे में आप इन्तार्नैत पर भी पड़ सकते हैं .