मेरी कहानी 93
बहादर और हरमिंदर (लड्डा ) दोनों भाई हमारी बेटी हरकीरत को देखने आये थे. क्योंकि उनके पास भी गाड़ी हिलमैन इम्प थी , इसलिए अब बसों में सफर करने का सिलसिला खत्म हो गिया था। मेरे शादी कराने से या बेटी हो जाने के बाद भी हमारे मिलने जुलने में कोई कमी नहीं आई थी, ऐसा प्रेम था हमारा, यही वजह थी कि जब बहादर की पत्नी इंडिया से आई थी तो बहादर की पत्नी कमल और कुलवंत का प्रेम ऐसे हो गया था जैसे वोह एक दूसरे को पहले से ही जानती थीं। मैं लिख चुक्का हूँ कि बहादर लड्डा और उन के चाचा जी सरदार केसर सिंह ने ninveh road handsworth पर घर ले लिया था जो नंबर 155 में रहते थे। मैं और कुलवंत अपनी बिटिआ को ले कर ninveh road उनके घर अक्सर आ जाया करते थे और बाहर घूमने और फिल्म देखने भी चले जाते थे। इन बातों को मैं ऐसा नहीं समझता कि उस समय अकेले हम ही ऐसे थे बल्कि उस समय सब लोगों में इतनी प्रेम भावना होती ही थी। कुछ देर बाद जगदीश ने भी शादी करा ली थी और वोह भी अपनी पत्नी उतरा के साथ रह रहा था और उतरा भी हमारी पत्निओं के साथ घुल मिल गई थी जो अब तक जारी है । हमारी औरतें इंडिया के संस्कार ले कर आईं थीं। बहुत से लोगों ने उस वक्त अपने घरों में इंडिया से आये हुए किरायेदार रखे हुए होते थे और यह औरतें उनकी रोटी बनाकर देती थीं। आज हमारी बहुओं से या बेटिओं से ऐसी उम्मीद करना ही एक मज़ाक होगा। कई घरों में तो बहुत बहुत किरायेदार रहते थे और उन की इलग्ग इलग्ग वक्त की शिफ्टें होती थीं लेकिन यह औरतें सब को खाना बनाकर दे देती थीं। कोई मर्द उनके रहते हुए अपना खाना खुद बनाये यह औरतें सहार ही नहीं सकती थीं। यह मैंने सुना नहीं बल्कि बहुत घरों में देखा था । इसी लिए मैं उन सभी औरतों को अपना सलाम पेश करता हूँ। कुछ अरसा बाद बहादर के एक नज़दीकी ताऊ जी के लड़के परमजीत और उस की पत्नी जागीरो भी बहादर के घर ही रहने लगे थे। इन दोनों भाईओं और इन के चाचा जी ने परमजीत और जागीरो को अपनों की तरह घर में रखा था। बहादर और लड्डा जागीरो को अपनी सगी भाबी से भी बड़ कर इज़त देते थे लेकिन समय के साथ साथ कभी कभी इन रिश्तों में दरारें भी पड़ जाती हैं लेकिन जो पियार मुहब्बत बहादर और लड्डे ने परमजीत और जागीरो को दी है उस को सिर्फ मैं ही जानता हूँ। उस समय जब वोह बेघर थे ,उनको घर जैसा वातावरण देना कोई छोटी बात नहीं थी।
कुलवंत के इंगलैंड आने से छै महीने बाद ही मुझे एक रैगुलर कंडक्ट्रेस्स मिल गई थी जो हर ड्राइवर को कुछ अरसा बाद रैगुलर कंडक्टर या कंडक्टरेस मिल जाया करते थे। यह ड्राइवर कंडक्टर की पक्की जोड़ी बन जाती थी और यहां भी जाना हो इकठे ही जाते थे। मुझे जो रैगुलर कंडक्ट्रेस मिली वोह एक आयरश औरत थी जिस का नाम था irene russel (आइरीन रस्सल ). आइरीन की दो लड़किआं थीं। बड़ी लड़की ने हमारे साथ काम करने वाले एक पाकिस्तानी लड़के से शादी की हुई थी। इस पाकिस्तानी को सभी राजा कह कर बुलाते थे और यह आज़ाद कश्मीर से था लेकिन राजा जब एक बेटे का बाप बना तो कुछ अरसे बाद ही उस को जबरदस्त हार्ट अटैक हुआ था और वोह यह संसार छोड़ गिया था ,आइरीन की बेटी ने इस्लाम धारण कर लिया था और मस्जिद जाने लगी थी । छोटी लड़की मौरीन मेरे एक दोस्त भुपिनंदर की दोस्त थी जो बहुत स्मार्ट था। यह लड़की उस से शादी कराना चाहती थी लेकिन भूपिंदर का बड़ा भाई जो खुद एक अँगरेज़ लड़की से शादी करवा चुक्का था ,भूपिंदर को जोर दे रहा था कि वोह इस लड़की से शादी ना कराये और आखर में भूपिंदर ने कोई बहाना बना कर मौरीन से नाता तोड़ लिया था। मौरीन को मैं जानता था , वोह बहुत खूबसूरत और दिल की अच्छी लड़की थी। इस बात से आइरीन बहुत दुखी थी और मुझे कहती रहती थी कि अगर इसने यह शादी नहीं करानी थी तो इतनी देर तक मौरीन के साथ क्यों जाता रहा। भूपिंदर ने भी इंडिया जाकर विवाह कर लिया था और अपनी पत्नी को इंगलैंड ले आया था , उसके एक बेटा और एक बेटी भी हुए थे ,उस की पत्नी का नाम सुनीता था और वोह बहुत वर्षों बाद यह संसार छोड़ गई थी। इस के बाद भूपिंदर इंडिया जा कर सुनीता की छोटी बहन से शादी करा कर ले आया था। (बड़े दुःख के साथ यह भी लिखना पड़ रहा है कि दो महीने हुए भूपिंदर भी यह संसार छोड़ गिया है )
आइरीन हम दोनों को मिलने हमारे घर आ जाया करती थी और हरकीरत के लिए बहुत कुछ ले कर आती थी। कभी कभी हम भी उनके घर जा आया करते थे जो विलनहाल रोड के पास ओल्ड हीथ में कौंसल के नए बने मकानों में था। आइरीन का पति तो ज़्यादा नहीं बोलता था क्योंकि वोह एक ऐल्कॉहॉलिक शख्स ही था जो हमेशा शराबी ही रहता था लेकिन उस की बेटीआं हरकीरत के साथ बहुत खेलती रहती थीं। साल 1968 के बारे में मैं पहले लिख चुक्का हूँ कि उस समय स्किन हैड का बहुत जोर था और वुल्वरहैम्पटन में एशियन लोगों पर काफी हमले हुए थे, इस लिए हमने भी अपना मकान सेल पर लगा दिया था। उस समय तक गियानी जी का सारा परिवार मेरे घर में ही रहता था। अब गियानी जी को भी फ़िक्र हो गिया था कि अब उन को भी कहीं जाना पड़ जाएगा। एक दिन गियानी जी मुझे कहने लगे ,” गुरमेल ! हम ने सोचा है कि यह घर हमें ही दे दे ,ताकि हमें कहीं जाना ना पड़े और तुम भी इसी तरह हमारे साथ रहते रहो “. 1450 पाउंड का हमारा सौदा हो गिया और हम ने मकान गियानी जी को दे दिया। हम उसी तरह रहने लगे और दो पाउंड हफ्ते का किराया गियानी जो को देने लगे। यह सिलसिला ज़्यादा देर तक नहीं चला। इनोक पावल को टोरी पार्टी से निकाल दिया गिया था और इस के बाद हालात धीरे धीरे फिर से पहले जैसे होने लगे थे । एक साल बाद ही पास वाला ही एक घर छोड़ कर घर नंबर 38 सेल पर लग गिया, जिस में इंडियन ही रहते थे। सेल का बोर्ड लगने के बाद ही कुलवंत और मैंने मशवरा किया कि क्यों ना हम इस घर को देखें ,अगर अच्छा हो तो ले लें। एक दिन हम ने इस घर का दरवाज़ा खटखटाया। एक औरत ने दरवाज़ा खोला जो बहुत कम बोला करती थी। उस ने हमें सारा घर दिखाया। घर में तीन बैड रूम थे और किचन भी बड़ी थी और इस के साथ ही देसी टाइप का गुसलखाना बना हुआ था। 1650 पाउंड का हमारा सौदा हो गिया और दो महीने में ही हम इस नए घर में आ गए। कुछ महीने बाद ही कुलवंत फिर से गर्भअवस्था में थी और एक और नए मेहमान का इंतज़ार हो गिया था।
उस समय बाथ रूम बहुत घरों में नहीं होते थे। यह वर्ल्ड वार फर्स्ट के ज़माने के बने हुए थे। अब धीरे धीरे बहुत से अंग्रेज़ों ने बाथ रूम बनवा लिए थे। जब हम इस घर में शिफ्ट हुए तो काउंसल ने एक स्कीम शुरू कर दी। जिसने भी अपने घर में बाथ लगवाना हो , काउंसल उस को आधे पैसे ग्रांट दे देती थी। बहुत से बिल्डर इस काम में लग गए थे। हम ने भी एक बिल्डर से कॉन्टैक्ट किया और हमारे हमारे घर में बाथ बनाने के लिए 480 पाउंड का कॉन्ट्रैक्ट साइन हो गिया ,जिस में से हम ने सिर्फ 260 पाउंड ही देने थे , शेष पैसे काउंसल ने देने थे। काम शुरू हो गिया और छै हफ़्तों में नया बाथ रूम बन गिया और साथ ही किचन में नया प्लास्टर हो गिया था। इस काम से घर का हुलिआ ही बदल गिया था। अब हम को सेंट्रल बाथ को जाना नहीं पड़ता था और रोज़ाना नहाना संभव हो गिया था जिसके हम सभी इंडियन बचपन से आदी थे। हमारा घर तो अब नया था लेकिन ज़्यादा वक्त कुलवंत गियानी जी के घर ही गुजारती थी। बंसो, छिंदी, बीबी और बलबीरो हरकीरत को हर दम अपने पास ही रखती थी। उसको बहुत खुश रखती थीं। इतना पियार किसी दूसरे के बच्चे को देना बहुत कम लोग दे सकते हैं। हरकीरत , जिस को हम पिंकी बोलने लगे थे ,गियानी जी को बाबा जी कह कर बुलाती ,बंसो को बाको कहती ,शिन्दी को निनी कहती। इतना मिला पियार बच्चा कैसे भूल सकता है ? अब पिंकी की अपनी बेटी भी 27 वर्ष की हो गई है लेकिन वोह अब भी उन दिनों को याद करती है और जब भी हमारे पास आती है बंसो छिंदी को मिल कर जाती है।
18 मई 1969 को पिंकी के जनम से एक साल बाद हमारी दुसरी बेटी का जनम हुआ ,जो रौएल हस्पताल में पैदा हुई। मुझे कुलवंत के मन का पता था , इस लिए हस्पताल जाने से पहले मैंने कुलवंत के लिए H . SAMUAL से एक सोने का नैकलेस खरीदा। जब मैं हस्पताल के मैटरनिटी वार्ड में पहुंचा तो दूर से ही कुलवंत का मुरझाया हुआ चेहरा देखा, वोह आँखें बंद करके बैड में लेटी हुई थी और पास ही कौट में बेटी सो रही थी। मैंने पहले बेटी को देखा जो बहुत सुन्दर लगी। इस के बाद मैंने कुलवंत की कलाई पकड़ी। मैं मुस्करा रहा था। कुलवंत भी मुस्कराई लेकिन यह झूठी मुस्कराहट थी। मैंने जेब से नैकलेस का शानदार डिब्बा निकाला और कुलवंत को पकड़ा दिया। उसने खोला तो देखते ही खुश हो गई। फिर बोली “एक और बिटिआ आ गई “. मैंने कहा ,” मेरे लिए बेटा बेटी में कोई फरक नहीं है “. फिर मैंने कौट से बेटी को उठा लिया और उस की और देखने और बातें करने लगा। कुलवंत भी हंसने लगी और कहने लगी ,”मर जाँणी कितनी सोहणी बन कर आई है “. मैंने कहा हाँ ,”यह पिंकी से ज़्यादा सोहणी है और इस का नाम मैं रीटा रखता हूँ , हमारे साथ एक अटैलिअन लड़की रीटा काम करती है जो बहुत सुन्दर है ,बस ऐसा ही नाम इसका होना चाहिए “. अब हमारे घर में दो नाम हो गए थे रीटा और पिंकी।
जब मैं घर आया तो बंसो छिंदी और बीबी सभी उदास थे। मुझे हैरानी हुई कि यह सब किया ओ रहा था। बीबी आँखों में आंसू लिए बोली ,” गुरमेल ! अगर बेटा हो जाता तो अच्छा था ,चलो भगवान की मर्ज़ी के आगे हम किया कर सकते हैं “. मैंने कहा ,” बीबी ! यह कैसी बातें कर रहे हो , मुझे तो कोई फरक ही नहीं है “. गियानी जी भी आ गए और कहने लगे ,” तुम सब का दिमाग खराब हो गिया है , भगवान ने जिस को भेजना था भेज दिया , इसमें किया बड़ी बात है “. कुछ दिन बाद कुलवंत रीटा को ले कर घर आ गई। बंसो छिंदी कुलवंत की मदद के लिए हमारे घर में ही अक्सर रहतीं। कुछ दिन बाद हमारी पड़ोसन जो चालीस नंबर में रहती थी और जिस को हम चालीस वाली कहा करते थे ,हमारे घर में आ गई और आँखें भर कर बोली ” कुलवंत ! एक और पत्थर आ गिया , लड़का होता तो घर में खुशीआं आ जातीं ” . मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने उस औरत को कहा ,” बहन मैंने इस बेटी की परवरिश करनी है और कर सकता हूँ , किसी और को इस बात की फ़िक्र नहीं होनी चाहिए ” . कहना तो मैं बहुत कुछ चाहता था लेकिन कह नहीं सका। इन बातों को देख कर मुझे इतना गुस्सा आता था कि मुझे समझ नहीं आती थी कि किया करूँ। बेटी हमारी थी और फ़िक्र लोगों को था ,यह मेरी समझ में नहीं आता था कि क्यों !
राणी पर से मेरे माता पिता ने ऐसा कुछ नहीं लिखा था जिस से लगता हो कि वोह उदास थे लेकिन यहां लोग हमको हमदर्दी दिखा रहे थे। इस में सब से ज़्यादा कष्ट इस बात का था कि कुलवंत इन बातों को कैसे ले रही थी क्योंकि उस की तो खुद की ज़िंदगी एक भाई को देखने के लिए तरसती रह गई थी और यही वजह थी कि ऐसी ही बातों से कुलवंत की माँ का दिमागी संतुलन असमान्य हो चुक्का था। मुझे समझ नहीं आती थी कि जिस देश के लोग स्त्री को लक्ष्मी सरस्वती का दर्जा देते हैं वोह अपने घर में पैदा हुई लड़की को नफरत भरी निगाह से क्यों देखते हैं। बचपन से ही मैं बहुत भावुक विचारों का रहा हूँ। हमारे समाज में जो हो रहा है ,इसे देख देख कर मुझे किसी धर्म से भी लगाव नहीं रहा था । मेरे खियाल में सभी धर्म सिर्फ किताबों ग्रंथों और कर्म कांडों तक ही सीमत हैं, इन में कोई सच्चाई नहीं है। धर्म उतनी देर तक ही है जितनी देर तक हम मंदिर मस्जिद गुरदुआरे या गिरजे में होते हैं ,उन के बाहर आते ही हम फिर से पहली हालत में आ जाते हैं। एक तरफ तो हम कहते हैं कि जो भगवान करता है , ठीक करता है और दुसरी तरह बेटी पैदा होते ही दिल बदल जाता है ,यह कोई नहीं सोचता कि औरत के दिल पर क्या बीतती है।
लोग कुछ भी कहें ,बेटिओं के आने से हमारे घर की रौनक बहुत बढ़ गई थी। रीटा के आने के कुछ देर बाद बहादर के घर भी इंडिया में एक बेटी ने जनम लिया था जिस का नाम रखा गिया था किरण और अभी तक उस को सब किन्नूँ कहकर ही बुलाते हैं । यह तीनों बेटीआं साथ साथ बड़ी हुई हैं। हफ्ता या दो हफ्ते बाद बहादर और हम एक दूसरे के घर जाते ही रहते थे और यह तीनों बेटीआं एक साथ खेलती रहती थीं। जब इन तीनों की पुरानी तस्वीरों को देखते हैं तो बहुत ख़ुशी मिलती है। अब तो किरण का बेटा भी यूनिवर्सटी में पढ़ाई कर रहा है और बेटी सीनियर स्कूल में पड़ रही है लेकिन हम को तो इन तीनों बेटिओं में वोह बचपन ही दिखाई देता है।
चलता . . . . . . . . . . . . . .
भाई साहब, यह क़िस्त पढ़कर आपकी महानता के दर्शन हो गए. बेटियों को इतना प्यार देना कठिन होता है. ज्यादातर लोग बेटों की ही चाह करते हैं, चाहे वे कितने भी नालायक निकलें. गुणी बेटी का सम्मान करने वाले दुर्लभ हैं.
विजय भाई ,बेतिओं से मेरा बहुत पियार है .आज १२ तारिख को मेरी बड़ी बेटी पिंकी ने आप के भेजे हुए सन्मान पत्र का वधाई का कार्ड भेजा है .विजय भाई आर्थिक और पर मैं कोई इतना आगे जा नहीं सका किओंकि इस के बहुत कारण थे लेकिन अपने परिवार से हम सुखी हैं .यहाँ लोग बच्चों से बहुत दुखी हैं लेकिन हमें तीनों बच्चों से सुख मिला है .अगर हम ने बेटिओं को पियार दिया है तो उन्होंने उस से भी ज़िआदा हमें दिया है ,बस यही हमारी दौलत है . हाँ बेटे की चाहत तो हर भारती की होती है लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि मैं बेटी होने से निराश होता .वैसे भी अब तो लोग बेटिओं की लोहड़ी भी मनाने लगे हैं ,यहाँ तो रिवाज़ ही हो गिया है ,बेटी पर भी ख़ुशी करते हैं और मठाई देते हैं .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। दूसरी बेटी रीता के जन्म और नए मकान की खरीद सहित सभी बाते ध्यान से पढ़ी। बेटिओं के प्रति आपके विचार, भावना और जज्बात तारीफ़ के काबिल हैं। मैं स्वयं भी ऐसे ही विचारों का हूँ। मेरी भी एक बेटी है जिससे मुझे अवर्णनीय सुख मिला है और मैंने कभी लड़की होने के कारण उसके प्रति हीनता का भाव अपने अंदर नहीं आने दिया। मैंने अपने विवाह से पूर्व एक बार आर्यसमाज में एक प्रवचन सुना था। उसमे आर्य विद्वान श्री श्याम सुन्दर स्नातक ने कहा था कि जिस घर में बेटी होती है उस घर में तहजीब होती है। इस बात को उन्होंने बहुत अच्छी तरह से समझाया था। स्वामी दयानंद तो छोटी छोटी बच्चियों को भी मातृशक्ति कहकर सम्मान करते थे। वह कभी स्त्रियों का चेहरा नहीं देखते थे और पर्दा डालकर ही बात करते थे। उन्होंने यहाँ तक कहा कि देशी राजाओं का जो राज्य बचा हुआ है वह उनकी पतिव्रता नारियों / देविओं के एक्पतिव्रत वा त्याग के कारण ही है। आज की क़िस्त बहुत अच्छी लगी। बधाई स्वीकार करें। सादर।
मनमोहन भाई , धन्यवाद .मैंने इस किश्त में बेटीओं के बारे में बहुत कुछ लिख दिया ,इस से ज़िआदा शाएद ना लिख सकूँ .किश्त को इतनी बारीकी से पड़ने और अपने शुभ विचारों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .