कविता
बुझे-बुझे हैं लग रहे
किस बात की कमी है
आखों के नीचे धब्बे
होठों पे ना नमी है
पड करके मोहब्बत में
सडक छाप हो गये
मोहल्ले में है अनबन
और बाप से ठनी है
मिलती हैं धमकियाँ
जानो-माल की
दे रहे हैं घुडकियां
गीदड सियार भी
इस इश्क के मैदान में
चक्कर हुए अजीब
हालत मेरी अब कुछ
फुटबॉल सी बनी है
इस जमाने के डर से
हम बदल ही जाएं क्यूँ
हमने भी ली कसम यह
छोड़ेंगे ना राह यूँ
हारें हैं ना हारेंगे
तोड़ डालेंगे गुरुर
हमारी भी शख्सियत
फौलाद सी बनी है
— कवि संयम