कविता
बड़ी मासूमियत से,
एक दिन उसने मुझे पूछा,
मुहब्बत नाम है किसका,
मुहब्बत कैसी होती है,
कहा मैंने सुनो जानां,
मुहब्बत के बहुत रंग हैं,
इबादत की तरह इसके,
ना जाने कितने ही ढंग हैं,
कभी चैन-ओ-सुकूं है ये,
कभी बेचैन करती है,
कहीं मर के भी जिंदा है,
कहीं हर रोज़ मरती है,
कभी चंचल, कभी गुमसुम,
कभी शोला कभी शबनम,
कभी सूरज कभी बादल,
थोड़ी सी लगे पागल,
चुरा कर नींद आँखों से,
ये रातों को जगाती है,
ना हो पाएं कभी पूरे,
ऐसे सपने दिखाती है,
कभी मिलने का वादा है,
कभी ये इंतज़ारी है,
जो चढ़ के फिर नहीं उतरे,
अजब इसकी खुमारी है,
ना लफ्ज़ों में कहा जाए,
ना कागज़ पर लिखा जाए,
मुहब्बत जिंदगी है खुद,
इसे तो बस जिया जाए,
मगर तुमने जो पूछा है,
मुहब्बत कैसी होती है,
तो मैं इतना कहूँगा बस,
ये तेरे जैसी होती है,
ये तेरे जैसी होती है,
— भरत मल्होत्रा