राजभाषा अधिकारी
अपनी राजभाषा की सेवा में लगी हूँ।
कार्यरत हूँ और प्रहरी सी जगी हूँ।
सीमाओं की जंजीर सी बाधाऐं हैं खड़ी
द्वेष मिश्रित कितनी भावनाऐं हैं अड़ी
काम यह लेकिन नहीं बल शौर्य का
प्रेम और सदभाव से ही आगे बढ़ी हूँ।
मैं अपनी राजभाषा की सेवा में लगी हूँ।
आंकडों और नंबरों के जाल हैं भयंकर
ताकती हूँ चकित दृगों से नैन भर-भर
छोड़ इस जंजाल को क़ाग़ज़ों के ढेर में
इसकी प्रगति के सोपान पर निरंतर चढ़ी हूँ।
मैं अपनी राजभाषा की सेवा में लगी हूँ।
आज भी दिल-दहलता है यह देखकर
क्या हश्र है, क्या दुर्गति 14 सितंबर
दूरियां अभी तय करनी हैं बहुत
मैं परंतु देख दूरियां कब विचलित हुई हूँ।
मैं अपनी राजभाषा की सेवा में लगी हूँ।
कार्यरत हूँ और प्रहरी सी जगी हूँ।
–– नीतू सिंह
बढ़िया !
शुक्रिया
बहुत सुन्दर रचना .
शुक्रिया