रोला छंद
उम्र के टूटें पात, करम कुछ कर लो भाई।
मिले न मिट्टी गात, समझ लो पीर पराई।
आया खाली हाथ, रेत सा फिसले जीवन।
बने जो धुँआ राख, न ठहरे यूँ अंतरमन।।
कभी न पकड़ो राह, कदम को जो बहकाती।
सुन के निंदा चाह, अकेला मन कर जाती।।
गठरी दुख की देख, कलेजा भर-भर आता।
सुख की महत्ता भाव, तभी दुख समझा जाता।।
तन की नैया प्राण, श्वास पतवार पुरानी।
सपन रहें हैं छीज,मनुज तू है नूरानी।।
गुंजन अग्रवाल
अति सुंदर
आभार भैया
अच्छी कविता !