सन्त रोमां रोल्या के महर्षि दयानन्द विषयक उत्साहवर्धक यथार्थ विचार
ओ३म्
सन्त रोमां रोल्या (1866-1944) यूरोप के उच्चकोटि के ग्रंथकारों और साहित्यिकों में से थे जो यूरोप के महान् मस्तिष्कों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रख्यात हैं। उन्हें सन् 1915 का साहित्य का नोबेल पुरुस्कार भी मिला है। फ्रेंच भाषा में उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी लिखी जिसके प्रथम भाग का अंग्रेजी अनुवाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. ई0एफ0 मलकीलन स्मिथ ने किया और जो सन् 1930 में अद्वैत आश्रम मायावती अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित हुई। इस जीवन चरित्र में विद्वान् ग्रन्थकर्ता ने एकता के निर्माता “Builders of Unity” शीर्षक के अन्तर्गत लगभग 25 पृष्ठों में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के विषय में आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया है। उनका दृष्टिकोण पाश्चात्य था और भारत से दूर बैठ कर वह लिख रहे थे। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सद्भावना रखते हुए भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मूल्यांकन करने में कहीं-कहीं असमर्थ रहे। उन्होंने उपलब्ध हुई सामग्री के आधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा उसका ऐतिहासिक मूल्य है। श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी में महर्षि दयानन्द से संबंधित सन्त रोमां रोल्या द्वारा लिखी सामग्र्री के अनुवादक श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक ने मार्च, 1957 को लिखा है कि कई स्थलों पर तो संत रोमां रोल्या ने महर्षि दयानन्द के अभिनन्दन में जो शब्द लिखे हैं, उसे पढ़ कर लगता है कि उन्होंने महर्षि की इतनी प्रशंसा की है कि उन्होंने कलम ही तोड़ दी है। इस लेख में हम संत रोमां रोल्या द्वारा कहे गये 8 प्रमुख कथनों को अंग्रेजी भाषा व उसके अनुवाद सहित उद्धृत कर रहें हैं। शेष प्रसंगों को लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए छोड़ दिया है जिसके लिए हम पाठकों से अनुग्रह करेंगे कि वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तक ‘‘भारत का एक ऋषि” पढ़ने का कष्ट करें।
सन्त रोमां रोल्या लिखते हैं कि (1) “The man (Dayanand) with the nature of a lion is one of those whom Europe is too apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost, for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. (p.146)” अर्थात् ‘सिंह समान निर्भीक प्रकृति वाला यह महापुरुष उन व्यक्तियों में था जिन्हें भारत का मूल्यांकन करते समय यूरोप भुलाने की चेष्टा करता हुआ भी भुला न सकेगा, क्योंकि ऐसा करना उसके (यूरोप के) लिये महंगा सौदा सिद्ध होगा। इस महान् पुरुष दयानन्द में विचार, कर्म और नेतृत्व की प्रतिभा का अनुपम सम्मिश्रण था।’
(2) Dayanand was not a man to come to an understanding with religious philosphers imbued with Western ideas. (p.150) अर्थात् दयानन्द पाश्चात्य विचारों से विमोहित दार्शनिकों के साथ समझौता करने वाले महानुभाव न थे।
(3) It was impossible to get the better of him for he possessed an unrivalled knowledge of Sanskrit and the Vedas while the burning vehemence of his words brought his adversaries to naught. They likened him to a flood. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. (p.150) अर्थात् उन (दयानन्द) पर विजय पाना असम्भव था क्योंकि वे वैदिक वांड्मय और संस्कृत के अनुपम भण्डार थे। उनके शब्दों की धधकती हुई आग से उनके विरोधियों का विरोध भस्मसात हो जाया करता था। वे लोग जल की प्रबल बाढ़ के साथ दयानन्द की तुलना किया करते थे। शंकराचार्य के पश्चात् दयानन्द जैसा वेदवित् भारत भूमि में उत्पन्न नहीं हुआ।
(4) Dayanand’s stern teachings corresponded to the thought of his countrymen and to the first stirrings of Indian nationalism to which he contributed. (p.153) अर्थात् दयानन्द की उग्र और प्रौढ़ शिक्षायें उसके देशवासियों की विचारधारा के अनुकूल थीं और उन शिक्षाओं से भारतीय राष्ट्रीयता का सर्वप्रथम नवजागरण हुआ।
(5) The enthusiastic reception accorded to the thunderous champion of the Vedas, a Vedist belonging to a great race and penetrated with the sacred writings of ancient India and with her heroic spirit is then easily explained. He alone hurled the defiance of India against her invaders. (p.157) अर्थात् महान् वीर योद्धा दयानन्द का उत्साहपूर्वक स्वागत होने का कारण इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में सहज ही में समझ में आ सकता है कि वे स्वयं वेदों के उग्र प्रचारक थे और वीर–भावना के साथ प्राचीन भारत के पवित्र ग्रन्थों को साथ लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने अकेले ही भारत पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध मोर्चा लगाया।
(6) He had no pity for any of his fellow countrymen past or present who had contributed in any way to the thousand year decadence of India, at to one time the mistress of the world. अर्थात् दयानन्द ने अपने देश के प्राचीन वा अर्वाचीन किसी भी निवासी को क्षमा नहीं किया जिसने किसी न किसी रूप में उस भारत के 1000 वर्ष के हुए पतन में योग दिया था, जो किसी समय संसार का शिरमौर था।
(7) It was in truth an epoch making date for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmans, but insisted that their study and propaganda was the duty of every Arya (p.159) अर्थात् सत्य यह है कि भारत के लिए वह दिन एक युग–प्रवर्तक दिन था जब एक ब्राह्मण ने न केवल यह स्वीकार किया कि उस वेद–ज्ञान पर मानव मात्र का अधिकार है जिनका पठन–पाठन उनसे पूर्व के कट्टर पन्थी ब्राह्मणों ने निषिद्ध कर दिया था, अपितु इस बात पर भी बल दिया कि वेदों का पढ़ना–पढ़ाना और सुनना–सुनाना सब आर्यो का परम धर्म है। इसके आगे एक अन्य स्थान पर वह लिखते हैं कि (8) दयानन्द ने भारत के निष्प्राण शरीर में अपना अदम्य उत्साह, अपना दृढ़ निश्चयात्मक संकल्प और सिंह जैसा रक्त भर कर उसे सजीव किया। उसके शब्द वीरोचित शक्ति के साथ गूंज गये।
संत रोमा रोल्या ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन के अनेक प्रसंगों को भी अपनी लेखनी से श्रद्धापूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया है। यहां हम उनके द्वारा लिखित ‘‘काशी शास्त्रार्थ” की एक घटना को देकर सन्तोष कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘शास्त्रार्थ में पराजित हुए पौराणिक पंडितों ने दयानन्द को अपने रोम (काशी) में आने के लिए आमंत्रित किया। दयानन्द निर्भयतापूर्वक वहां गए और सन् 1869 के नवम्बर मास के उस महान् शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए जिसकी तुलना होमर के काव्य में वर्णित संग्राम के साथ की जा सकती है। लाखों आक्रान्ताओं के सामने जो उन्हें परास्त करने के लिए उत्सुक थे, उन्होंने अकेले 300 पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया, दूसरे शब्दों में पोप गढ़ की अग्रगामिनी और सुरक्षित दोनों सेनाओं के साथ दयानन्द ने यह सिद्ध किया कि जिन ग्रंथों पर आचरण किया जाता है वे वेदानुकूल नहीं हैं। उन्होंने अपना आधार वेद को बनाया हुआ था। पंडितों का धीरज टूटते हुए देर न लगी। उन्होंने दयानन्द का परिहास और बहिष्कार किया। दयानन्द को अपने चारों ओर निराशा के बादल छाये हुए दिखाई पड़े परन्तु महाभारत जैसे इस संघर्ष की प्रतिध्वनि से समस्त भारत गूंज उठा जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया।’
हमने साहित्य का नोबल पुरुस्कार प्राप्त संत रोमां रोल्या जी की पुस्तक से महर्षि दयानन्द विषयक कुछ मुख्य प्रसंगों को प्रस्तुत किया है जिससे एक विदेशी निष्पक्ष विद्वान के शब्दों में महर्षि दयान्द के व्यक्तित्व व कृतित्व का अनुमान लगाया जा सके। महर्षि दयानन्द जैसा विलक्षण वेदभक्त, देशभक्त, ब्रह्मचर्य का आदर्श, वेदों के ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण, अपूर्व समाजसुधारक, पतितोद्धारक व धर्मप्रचारक भारत में अभी तक दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ। इतना और निवेदन करना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द का वेदों के प्रति कोई परम्परागत व अतार्किक पूर्वाग्रह नहीं था अपितु वेदों के महत्व व विशेषताओं ने ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया था। उन्होंने युक्ति व तर्क की कसौटी तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल होने के कारण ही वेदों की महत्ता को स्वीकार किया था। वेदों का धर्म व समाज सम्बन्धी विचारों व शिक्षाओं में जो गौरवपूर्ण स्थान है, वह संसार के किसी अन्य ग्रन्थ का उसकी सामग्री की विशेषता की दृष्टि से नहीं है। वेद सार्वभौम धर्मग्रन्थ हैं जो मनुष्यों को सदाचारी और गुणवान बनाते हैं और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कराते हैं। अन्य ग्रन्थों में यह बात न होने के कारण ही महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था। संत रोमां रोल्या जी ने स्वामी दयानन्द जी के प्रति जिन भावपूर्ण शब्दों को लिखा वह निष्पक्ष एवं यथार्थ है। महर्षि दयानन्द ऐसे ही थे व इससे भी अधिक महत्वपूर्ण, गौरवशाली व महान थे। वेद और दयानन्द जी की शरण में सच्चे आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान प्राप्त करने और अपने जीवन को सफल बनानें के लिए आईये और सफल मनोरथ होइये।
-मनमोहन कुमार आर्य
अच्छा लेख मान्यवर !
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी।
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .दुखद बात तो यह है कि हिन्दू दयानंद जी की बात को समझ नहीं रहे ,यही कारण है कि हिन्दू धर्म वैह्मों और अंधविश्वासों से भरा हुआ है .हज़ारों साल पुरानी प्रोह्तों की परम्परा कि लूटना उन का जनम अधिकार है ,ख़तम नहीं हुआ बल्कि आगे बढता ही चला जा रहा है .हमारी गियानी जी भी राम कृष्ण की एक बड़ी किताब पड़ कर कभी कभी हम को सुनाया करते थे लेकिन अब याद नहीं .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने बिलकुल ठीक कहा है। हमारे पौरणिक भाइयों ने तो अपने ज्ञान वा स्वार्थ के लिए राम व कृष्ण जैसी पवित्र और महान आत्माओं को भी बदनाम किया है। मनुष्य बुरे काम करता है, इसका मुख्य कारण ईश्वर ने जीवात्मा को स्वतंत्र किया हुआ है। ईश्वर जीवात्मा को बुरे काम न करने की प्रेरणा तो करता तो है परन्तु रोकता नहीं। जीवात्मा काम, क्रोध, लोभ वा मोह के वशीभूत होकर बुरे काम करता है। यह प्रवृत्ति देश विदेश में सभी जगह देखी जाती है। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है परन्तु कर्मों के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है। आज संसार में जो दुःख देखने में आते है उसका कारण हमारे कर्म ही होते है। ईश्वर किसी को बिना कारण दुःख नहीं देता। वह तो हमारा माता, पिता, बंधू, सखा वा मित्र है, अतः वह अकारण हमें दुःख नहीं दे सकता है। दुखों से बचने के लिए हमें अच्छे परोपकार / चैरिटी के काम करने जरुरी है। आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। आभार , सादर।