शोषित बनाम शोषक
देखती रहती हरदम
खिड़की से पार
हाड़-माँस की पुतली को पिटती हुई,
घर नाम की इकाई को बचाने की
जद्दोजहद में ,
प्रतिपल मिटती हुई
पूछ ही लिया एकदिन आखिरकार
क्यों बेवश हो ,परवश हो
खा-खा के रोज मार
करती नहीं तू प्रतिकार?
बेझिझक ,बेहीचक कहा उसने-
“उसकी हूँ तो वह मारता है,
दूनिया भर की कमाई भी तो
मुझपे वारता है ”
हैरान हूँ मैं
यह इक्कीसवीं सदी है?
क्या विगत ,क्या भावी
तूझपें भौतिकता इस कदर हावी?
पुरातन पंथों को पकड़ी
तू स्वयं मानसिक दासता में जकड़ी
बन बैठी है प्रताड़ना की पोषक
फिर क्यों न रहे वह तेरा शोषक… !
— आरती वर्मा ‘नीलू’