दूसरा खाता
नत्थूराम जी मेरे लिए बहुत ही मूल्यवान ग्राहक थे। उनके खातों से मेरी शाखा को बहुत लाभ होता था। उनका चालू खाता बहुत ही फ़ायदा देता था। जब भी बैंक कोई नया प्रोडक्ट लॉन्च करता था तो मैं वह प्रोडक्ट सबसे पहले उन्हें ही बेचने की सोचता था।
दो साल पहले जब मैंने इस शाखा में कदम रखा था तो शाखा काफी घाटे में चल रही थी। कई खाते एन पी ए हो चुके थे, कई खातों में बकाया शून्य था, कई खातों से कोई लाभ नहीं हो रहा था, कई महीनों से कुछ भी वसूली नहीं हुई थी लेकिन अग्रिम बहुत दिया जा चुका था, नए उत्पाद बिक नहीं रहे थे और बैंक एक पर एक नए रिटेल उत्पाद लॉन्च किए जा रहा था। कुल मिलाकर शाखा की हालत खस्ता थी और मेरे लिए यह शाखा एक बहुत बडी चुनौती थी। परंतु साथ ही यह मेरे लिए उन्नति का सुनहरा अवसर भी था, अगर मैं कड़ी मेहनत से किसी तरह शाखा को उबार पाऊँ तो मेरी पदोन्नति तो पक्की। मैने वही किया जो मेरे बैंक के और मेरे हित में था। नया खून था, नया-नया शाखा प्रबंधक बना था और तो और नई-नई शादी भी हुई थी, भावी जीवन को लेकर नए-नए सपने भी देखा करता था। बहुत जल्द बहुत ऊपर जाना चाहता था और साथ ही एक सुखी छोटे परिवार की कल्पना भी करता था।
नत्थूराम जी से मेरी मुलाक़ात पहले ही दिन हो गई। स्वाभाव से बडे मिलनसार एवं हँसमुख थे और मैं भी कम व्यवहार कुश्ल न था इसलिए पहले ही दिन से मैने अच्छा संबंध स्थापित कर लिया। धीरे-धीरे उनके संपर्क के कई लोगों से मेरा परिचय हुआ जिसका मैंने पूरा-पूरा फ़ायदा उठाया। इस शाखा को मैंने अपनी मेहनत एवं लगन से उस स्थान पर पहुँचा दिया कि कार्यपालकों की प्रशंसनीय दृष्टि इस शाखा पर पड़नी शुरु हो गई। इसके लिए मैं कुछ-कुछ नत्थूराम जी का भी आभारी हूँ, हाँलाकि मैंने कभी ये आभार प्रकट नहीं किया।
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वह साल की आख़िरी तिमाही थी और मार्च से पहले सबको अपना लक्ष्य(टार्गेट) पूरा करना था। मैं तो पिछली तिमाही में ही अपना लक्ष्य पूरा कर चुका था लेकिन पदोन्नति पाने के लिए मैं कुछ अतिरिक्त करना चाहता था और मार्च से पहले शाखा के जमा (डिपोस्टि) को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने के चक्कर में था। लेकिन मेरा हर दाँव उल्टा पड़ रहा था। एक सरकारी ऋण द्वारा मुझे काफ़ी लाभ की आशा थी, उससे मेरे शाखा का जमा काफ़ी बढ़ सकता था और मैं अभी ही अगले छ: महीने का लक्ष्य आसानी से पूरा कर सकता था लेकिन वह लोन दूसरे बैंक को चला गया। नत्थूराम जी भी आजकल घाटे में चल रहे थे। उनके खाते से भी रुपया केवल निकल रहा था लेकिन जमा नहीं हो रहा था। वह आजकल तंगी में थे लेकिन अभी भी वे उतने ही हँसमुख और मिलनसार थे।
आज मैं अपने केबिन में बैठा यही सोच रहा था कि शाखा की जमा कैसे बढ़ाऐं कि इतने में नत्थूराम जी पधारे। मैंने हँसकर उनका स्वागत किया और उन्हें बैठने को कहा। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद उन्होंने हिचकते हुए पूछा –“मैनेजर साहब! मेरे खाते में कुल कितना रुपया होगा?” मैंने अपने उप प्रबंधक राव साहब को बुलाकर नत्थूराम जी के खाते का पूरा विवरण लाने को कहा। वे जल्द ही प्रस्तुत हुए और मैं दंग रह गया। नत्थूराम जी हमेशा परोपकार के लिए रुपए निकालते रहते थे। शाखा प्रबंधक होने के नाते मैं उनके द्वारा किए गए लेन-देन का विवरण रखता था। लेकिन मेरे भी ध्यान में यह बात नहीं थी कि परोपकार के चक्कर में उनका खाता एकदम खाली हो जाएगा। मुझे अपने ऊपर भी झुंझलाहट हो रही थी कि एक बार भी मैंने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया। अगर मैं उनको सावधान करता तो शायद वे अपना हाथ रोक लेते और मेरी शाखा का एक बड़ा खाता यों खाली होने से बच जाता (हाँलाकि मैं गलत था क्योंकि वे किसी परिस्थिति में नहीं रुकते)। मुझे शाखा की चिंता सताने लगी और मेरे करियर की भी। मैने पसीना-पसीना होकर उनसे कहा –”आपके खाते में तो केवल पैंतालिस हजार ही शेष हैं।“ यह सुनकर वे गहरी सोच में डूब गए। मैं समझा कोई गंभीर समस्या है, शायद उन्हें रुपयों की सख़्त ज़रुरत आन पडी है। शायद मैं कोई मदद कर सकूँ। यह सोच कर मैंने पूछा –“कोई ज़रुरी काम आ पड़ा है क्या? कितने रुपए चाहिए थे आपको?” “दो लाख”। मैं थोड़ा सोच में पड़ गया। दो लाख मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, हाँलाकि छोटी बात भी नहीं थी, चाहता तो दे सकता था लेकिन उस समय मेरी पत्नी का नौवाँ महीना चल रहा था और मैं बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित था। अगर बड़ा होकर वह डॉक्टर या इंजीनियर बनेगा तो उसकी पढ़ाई में बहुत खर्चा आएगा, जिसके लिए मुझे अभी से धन जमा करना होगा। मेरी और मेरी पत्नी की बहुत सी फिजूलखर्ची तो उसी दिन बंद हो गई जिस दिन उसने मुझे इस नवागन्तुक की सूचना दी। खैर, अभी तो मैं नत्थूराम जी की कोई मदद नहीं कर सकता।
“वैसे आपको इतने रुपयों की क्या..”
“मेरे घर में काम करनेवाली एक औरत का बच्चा सीढीयों से गिर गया और उसका सिर फट गया….”
इसके आगे मैं कुछ सुन न सका, इतना सुनते ही मेरा सिर गुस्से से फटने लगा। मेरी समझ में न आया कि इस हरिश्चंद्र के पुतले का मैं क्या करूँ। एक कामवाली के लिए, जिसका इनसे कोई लेना-देना नहीं, ये आदमी अपना भविष्य और किसी न किसी तरह से मेरा भविष्य भी बिगाड़ रहा है। मैंने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की, अपनी व्यवहार कुश्लता के सारे गुर अपना के देख लिए, परंतु वह धर्मात्मा अपनी परोपकारिता से टस-से-मस न हुआ और हार कर मुझे उनका खाता बंद कर, उन्हें पैंतालिस हजार रुपए देने पड़े। बाकी की राशि के लिए उन्होंने फोन पर ही अपने एक मित्र को कह दिया।
मैंने एक आखिरी कोशिश कर के देखी। “नत्थू जी क्यों दूसरों के लिए अपना भविष्य खराब करते हैं। भगवान न करे, आपको कल इन रुपयों की अपने लिए ज़रुरत पड़ गई तो! धीरे-धीरे करके आपने अपना खाता पूरा खाली कर दिया और आज बंद भी कर दिया…”
“ये खाता खाली हो गया तो क्या हुआ दूसरा खाता तो भर रहा है न।“
मुझ पर तो जैसे गाज गिर गई। क्या मेरी जानकारी के बाहर नत्थूराम जी का कोई और खाता भी है। क्या वो मुझसे परोपकार के नाम पर झूठ बोलकर रुपए निकालते रहे और किसी और बैंक के खाते में डालते रहे? लेकिन मेरी ग्राहक सेवा में तो कभी कोई खोट नहीं आई! मैने तो कभी भूलकर भी ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे उनको ठेस पहूँचे।
मैंने धड़कते हुए दिल पर हाथ रखकर नत्थूराम जी से पूछा “क्या किसी और बैंक में भी आपका खाता है?”
हाँलाकि उनके माथे पर चिंता की लकीरें ज्यों की त्यों बनी हुई थी, वे उन्ही लकीरों के साथ मुस्कुराते हुए बोले “हाँ है न! चित्रगुप्त के पास!”
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