कहानी

गुलाबो

इससे पहले की सूरज अपनी किरणों से पीछे वाली बिल्डिंग की पेंटिंग पूरा कर मेरी खिड़की को सुनहला पेंट करे मुझे निकल जाना होगा वरना आठ छः की लोकल छूट जाएगी। निकलकर रोड पर तो मैं आ गई मगर लोकल छूटने का डर अभी खत्म नहीं हुआ है। अगर ऑटो चालक देवता प्रसन्न न हों तो हो सकता है लोकल छूट ही जाए। सब ऑटो जा तो उसी दिशा में रहे हैं लेकिन क्या मेरे चेहरे पर ‘डोंट पिक अप’ का बोर्ड लगा है जो मेरे ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिलाने पर भी रूक नहीं रहे और तो और एक-अधे जो रूक जा रहे हैं उनका अछूतवाद तो चरमसीमा पर है। उनसे ‘स्टेशन’ कहो तो बिना कुछ बोले अपनी गाड़ी आगे भगा ले जाते हैं जैसे मैंने कह दिया हो कि मैं अजमल कसाब की बहन हूँ। आज तो गई आठ छ: की लोकल। उम्मीद करना ही बेकार है। अब तो किसी भी ट्रेन में चढ़ पाना मुश्किल होगा।

जब मैं इत्मीनान से खड़ी थी कि अब तो कुछ नहीं किया जा सकता तब एक ऑटो वाला खुद ही मेरे आगे आकर रूक गया। मैंने उससे भी वही कहा जो सबसे कहती हूँ कि मैं अजमल कसाब की बहन हूँ। उसने भी मुँह घुमा लिया लेकिन मीटर डाऊन कर दिया। मेरे लिए इतना इशारा ही काफी था और मैं झट से ऑटो के कोने में दुबक गई। अपना पर्स चिपका लिया खुद से की कहीँ एक गड्ढे के झटके में ही वो उछल कर बाहर भाग जाए फिर इतने सारे गड्ढों की तो बात ही छोड़ो।

ऑटो से उतरी तो पता लगा कि मैंने एक महापाप किया है। ऑटो के लिए छुट्टे पैसे नहीं रखे ।

“मैडम चढ़ने से पहले बोलने का न, छुट्टा नई है। अभी मैं भी किधर से लाएगा। सुबह-सुबह खाली-पीली झिक-झिक।”

इतने में मैंने लोकल को स्टेशन पर आते देखा। फिर क्या। छुट्टे का मोह त्याग कर मैं जान लगा कर भागी और लोकल पकड़ ही ली। हे भगवान ऐसी ही कृपा बनाए रखना। जब मैं लेट हो जाऊँ तो लोकल भी लेट कर देना और जब मैं जल्दी आऊँ तो लोकल भी जल्दी आए और जल्दी आए का मतलब यह नहीं कि फिर वहीं खड़ी रहे और भीड़ बढाए बल्कि वह जल्दी जाए भी ताकि भीड़ कम रहे है और मैं अपनी तशरीफ़ पूरी नहीँ तो उस एक चौथाई सीट पर ही टिका सकूँ जिसे लोग चौथी सीट या फोर्थ सीट कहते हैं।

पर आज यह मुमकिन नहीं है। आज ट्रेन मिल गई वही काफी है। खड़े होने के लिए धक्का-मुक्की तो होगी ही। कहीं भी जगह नहीं है। इस ठेलम-ठेल में बस अपने आप को कहीं अंदर ढकेल के ले जाना होगा। कहाँ अंदर? वो पता नहीं। मगर बस अन्दर कहीं क्योँकि यहाँ खड़ी रही तो या तो मैं अँधेरी उतार दी जाउंगी या फिर बांद्रा में तो पक्का बाहर कर दी जाऊँगी। इसी चक्कर में एक को मैंने कह दिया- “थोड़ा अंदर चलो न।” बस अब तो समझ लो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया। चुपचाप शालीनता से खड़ी औरत ने रुद्राणी का अवतार धारण कर लिया और लगभग भूत खेलती हुई सी बोली -“अंदर किधर जाएगी मैं। जागा किधर है?”

इतने मैं मेरे पीछे खड़ी एक और भद्र महिला भी अचानक रुद्राणी अवतार में आ गई जैसे उसने कसम खाई हो कि जिस औरत से कल उसने झगड़ा किया था उसके ना मिलने पर वो किसी से भी भिड़ जाएगी और कल का बदला पूरा करेगी। हुआ भी यही। वो भी भूत खेलने लगी और बोली- “क्यूँ नहीं है जगह। उतनी जगह तो है। तुम नहीं सरकोगी तो क्या हम इधर ही लटके रहेंगे। अन्दर चलो वरना धक्के खा के अंदर जाना पड़ेगा।”

अपने पाले में किसी को खड़ा देख मुझे तो सुकून मिला मगर प्रतिद्वन्दी रूद्राणी ने ठान लिया कि इन दोनों को तो मैं चुटकियों से मसल दूँगी। अभी उसने जवाबी कार्रवाई के लिए अपना मुंह रुपी फ़ाइल खोल ही था कि कहीं हमारे पीछे से आवाज़ आई-“अंदर चलो, अंदर, यहाँ लोग लटक रहे हैं।” इस आवाज़ के हस्ताक्षर ने फ़ाइल को तुरंत बंद कर दिया और प्रतिद्वन्दी रुद्राणी के छक्के छुड़ा दिए। उसे लगा इतने लोगों की फ़ौज़ के आगे पीछे हट जाना ही बेहतर होगा। वो बगल हो गई।

मैं और मेरी साथी रुद्राणी विजयपथ पर आगे बढ़ी तो नहीं (क्योंकि बढ़ने की जगह कभी होती ही नहीं है और आज भी नहीं है) हां आगे सरक ज़रूर गई क्योंकि सरकने भर की जगह ही थी। जबतक दोनोँ रुद्राणियों के बीच नैनो की अग्निवर्षा हो रही थी मैंने अवसर का फायदा उठाया और इससे पहले कि कोई और पूछे वहां की सीटों पर विराजमान सौभाग्यवती औरतों से मैंने सीट के लिए पूछना शुरू कर दिया। एक ने कहा मुंबई सेंट्रल । अरे यार मुंबई सेंट्रल से सीट लेकर क्या करनी है। खैर फिर भी ले ही लेते हैं। भागते भूत की लंगोट भली।

फिर एक गोरी-चिट्टी गुलाबी सूट वाली से पूछा। दरअसल पूछना तो मैं यह चाहती थी कि यह गुलाबी सूट लिया कहाँ से। मैने तो लिंकिंग रोड से दादर और मलाड वेस्ट के नटराज मार्केट और भिन्डी बाज़ार से लेकर क्रौफोर्ड मार्किट तक सब देख डाला है। ये वहां का मॉल नहीं लगता। अगर किसी शोरूम से लिया है तो ब्रांड पता करना होगा और कहीं बाहर से लिया हो तो कह नहीं सकते। खैर यह सब क्या लेकर बैठ गई मैं मुझे तो इस गुलाबो से सीट के लिए पूछना था। अच्छा तो गुलाबो दादर है फिर तो मुंबई सेंट्रल से बेहतर ही है। मुंबई सेंट्रल वाली को ना कह दिया फिर भी सोच ही रही थी कि मुझे और पहले की कोई न कोई सीट तो मिल ही जाएगी।

हुआ भी वही। अब मैं थोडा इत्मिनान से खड़ी थी कि मन दादर पर संतुष्ट नहीं हुआ। ढूंढते-ढूंढते एक अँधेरी की सीट मिली ठीक उस गुलाबी सूट वाली लड़की के सामने। अब तो मौका भी है दस्तूर भी वाला हाल था। आराम से सूट के बारे में बात कर सकती थी। परन्तु सीट की अमूल्य धरोहर पाकर मैं फूली न समा रही थी। उस बोगी की उन महिलाओं को देखकर गर्व का आभास हो रहा था जिन्हें सीट अब तक नहीं मिली थी , जो ललचाई निगाहों से यहां वहां ताक रही थीं और मैं गर्व कर रही थी कि अपनी तत्परता तथा वाकपटुता के कौशल से मैंने इस बहुमूल्य सिंहासन को पाया है।

मैंने बोगी में नज़र घुमाई तो देखा हर औरत कुछ न कुछ थी हरेक का अपना व्यक्तित्व था, अस्तित्व था और उनके अस्तिव को चुनौती देने वाला पुरुष समाज भी यहां नहीं है क्योंकि यहाँ का तो पुरुष भी अपना अस्तित्व बनाने में इतना व्यस्त है कि उसके पास भी चुनौती देने का समय नहीं है। आज तक इनको पुरुष समाज से वहीं चुनौती मिलती रही है जहाँ पुरुष अपने बाप-दादाओं के बनाए हुए अस्तित्व के मजे लूट रहे हैं और अपना अस्तित्व ढूँढ रही नारी को पूरी फुर्सत से ललकारते हैं।

चारों और नज़र घुमाकर देख लेने के बाद मेरी आँखों का पंछी वापस जहाज पर आकर टिक गया याने गुलाबो पर। उसका सूंदर सूट देखकर मुझसे रहा नहीं जा रहा था। अत: मैंने उससे पूछने का मन बना लिया पर सोचा कहीं झिड़क न दे। फिर सोचा झिड़केगी तो उसे छोडूंगी नहीं। मैं डबल सुनाऊँगी। मगर जब भी मैं सवाल पूछने के लिए उसकी तरफ देखती हूँ तो वो कहीं और देख रही होती है और जब वो मेरी तरफ देखती है तो मेरा ध्यान कहीं और होता था। दिमाग ने फिर पल्टी खाई कि जल्दी क्या है इसे तो दादर तक जाना है इत्मीनान से पूँछूँगी।

इसी बीच हमारी नज़रें मिलीं और मैंने पूछने के लिए मुँह खोला ही था कि उसके हाथ में रखा फोन बज उठा। वह फोन सुनने में व्यस्त हो गई और मैं इधर-उधर देखने लगी। जाने क्या बात हुई कि वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसका रोना देखकर मैं घबरा गई। कायदे से तो यह पूछना बनता था कि क्या हुआ? क्या तकलीफ है? मैं कुछ सहायता कर सकती हूँ क्या? मगर नहीं मैं सहायता करने की सोच से ही सकपका गई।

अगर कहीं उसकी किसी भी प्रकार की सहायता करने के लिए मुझे बाध्य होना पड़ गया तो मैं समय पर ऑफ़िस नहीं पहुँच पाऊँगी। मेरी छुट्टियों को कोटा तो पहले ही खत्म हो चुका है और यह बायोमेट्रिक सिस्टम जब से आया है मेरा देर से जाना भी मुश्किल हो गया है। पहले ही अनुशासनिक कार्रवाई की जाने की चेतावनी दी जा चुकी है। कौन मानेगा की मैं परोपकार करती फिर रही थी इसलिए ऑफिस के लिए लेट हो गई। मेरी तो एक दिन की सैलरी मारी जाएगी और लीव रेकार्ड जो खराब होगा सो अलग से।

उस गुलाबो के चेहरे की पीड़ा देखकर त्रस्त हुए बिना नहीं रहा जा रहा था। वह ज़रूर किसी बड़ी त्रासदी से गुजर रही थी। मगर किसी से उसकी मुसीबत पूछना अपने ऊपर उसकी मदद करने की एक नैतिक जिम्मेदारी पैदा कर देता है इसलिए अपनी लाख उत्सुकता के बावजूद मैंने उससे अपना मुँह फेरे रखा। यहाँ सबको समस्याएं हैं। किसी को ज़्यादा तो किसी को कम। उसकी समस्या बहुत ज़्यादा है और मेरी समस्या केवल समय पर दफ्तर पहुँचने की है। मगर इसका मतलब यह तो नहीं बनता की अपनी समस्या भूलकर उसकी मदद करूँ। फिर मेरी मदद को तो कोई नहीं आएगा। यहाँ सब अपनी समस्या से निपट लें यही बड़ी बात है।

मैंने मन ही मन कहा कि गुलाबो तेरी पीड़ा बहुत भारी है मगर तेरी समस्या चाहें कितनी ही गंभीर हो तू उससे खुद ही निपट। मैं अपने मोबाइल में घुस गई। मेरे सहयात्रियों ने भी उसी उदासीनता का मुखौटा ओढ़ रखा था। अब कोई गलती से भी उसकी ओर नहीं देख रहा था। मैं बेचैनी से दादर स्टेशन आने का इंतजार करने लगी ताकि मुझे इस असमंजस्य से भरी स्थिति का सामना और न करना पड़े। मगर दादर भी जाने कहाँ छुप गया था। बांद्रा से दादर की यात्रा पहले तो कभी इतनी लंबी न थी। पर भगवान ने सब्र का फल दिया और गाड़ी दादर स्टेशन के बाहर तक पहुँच गई थी। तभी सब औरतों ने दरवाज़े पर धक्कम-धुक्की शुरू कर दी।

सब की सब दरवाज़े से कूद ही जाने को तत्पर थीं कि मुझे चिढ़ होने लगी कि यह गुलाबो हिल क्यूँ नहीं रही। अगर यह यहाँ नहीं उतरी तो उसे झेलना और मुश्किल हो जाएगा। मगर गुलाबो तो अपने ही दर्द में डूबी थी। अपनी आँखों से निकल रही अनवरत धारा को बार-बार पोंछती हुई अपनी स्थिति से एकदम अनभिज्ञ बैठी हुई थी। अंतत: जब गाड़ी प्लेटफार्म पर घुसी तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उसके घुटनों को हिलाते हुए कहा –“आपको दादर उतरना है न?”

वह अचानक से सकपकाई और अपनी आँखों पर पड़ी आसुओं की झिल्ली के उस पार की दुनिया को पहचानने की कोशिश करने लगी। उसे भी होश सा आया कि उतरना तो है ही सो वो भी उस कतार में जा कर खड़ी हो गई जो थोड़ी देर में गायब होने वाली थी। मैं अब भी उसे देखने से डर रही थी। कुछ ही मिनटों में ट्रेन काफी खाली-खाली हो गई थी और मेरा दिमाग भी। ट्रेन धीरे-धीरे चलने लगी। मैंने खिड़की के बाहर उसे धीरे-धीरे जाते देखा और चैन की साँस ली। मैंने देखा कि वह गुलाबी कपडों और लाल आँखों वाली लड़की बदहवास चली जा रही है।

*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]

2 thoughts on “गुलाबो

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    वाह वाह , कहानी पडी और बहुत अच्छी लगी ,बस ऐसी बहादरी का काम तो कसाब की बहन ही कर सकती है .

    • नीतू सिंह

      धन्यवाद

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