गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

रात को देखा आसमान में बिल्कुल मेरा जैसा चाँद,
तारों के झुरमुट में भी था तनहा और अकेला चाँद

ये भी इंसानों के जैसा कितने रंग बदलता है,
कभी गायब कभी जरा सा कभी आधा या पूरा चाँद

अपने सुंदर चेहरे पे तू इतना ज्यादा मत इतरा,
मेरे शहर में भी रहता है तुझसे मिलता जुलता चाँद

जिसकी एक झलक पे शहर के सारे आशिक मरते हैं,
चाँद नगर की चाँद गली के चाँद महल में रहता चाँद

लगता है यूँ मेरा दिलबर जैसे नूर का दरिया हो,
हाथ का कंगन कान की बाली औ’ माथे का टीका चाँद

ज़रा नकाब हटा दे रूख से आसमान से शर्त लगी है,
दोनों में से कौन हसीं है उसका चाँद या मेरा चाँद

कौन रूप पे करूँ भरोसा किस पर मैं विश्वास करूँ,
कभी लगे मासूम मुझे और कभी लगे कातिल सा चाँद

दोनों ही हैं नज़र की ज़द में पर दोनों हैं पहुँच से दूर
पहला धरती वाला चाँद और दूजा अंबर वाला चाँद

— भरत मल्होत्रा

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]