ग़ज़ल
रात को देखा आसमान में बिल्कुल मेरा जैसा चाँद,
तारों के झुरमुट में भी था तनहा और अकेला चाँद
ये भी इंसानों के जैसा कितने रंग बदलता है,
कभी गायब कभी जरा सा कभी आधा या पूरा चाँद
अपने सुंदर चेहरे पे तू इतना ज्यादा मत इतरा,
मेरे शहर में भी रहता है तुझसे मिलता जुलता चाँद
जिसकी एक झलक पे शहर के सारे आशिक मरते हैं,
चाँद नगर की चाँद गली के चाँद महल में रहता चाँद
लगता है यूँ मेरा दिलबर जैसे नूर का दरिया हो,
हाथ का कंगन कान की बाली औ’ माथे का टीका चाँद
ज़रा नकाब हटा दे रूख से आसमान से शर्त लगी है,
दोनों में से कौन हसीं है उसका चाँद या मेरा चाँद
कौन रूप पे करूँ भरोसा किस पर मैं विश्वास करूँ,
कभी लगे मासूम मुझे और कभी लगे कातिल सा चाँद
दोनों ही हैं नज़र की ज़द में पर दोनों हैं पहुँच से दूर
पहला धरती वाला चाँद और दूजा अंबर वाला चाँद
— भरत मल्होत्रा