संत साहित्य की आवश्यकता और महत्त्व
आग लगी आकाश में, चुई-चुई गिरे अंगार
गर, न होते संत तो, जल जाता संसार ||
संत की वाणी अटपटी, चटपट बूझे कोय
जो कोई चटपट बूझै, झटपट दर्शन होय ||
वर्तमान काल में जब पूरा विश्व, मानवता और मानवीय मूल्यों से दूर हो, विध्वंस और बर्बादी के निमित्त बारूद के ढेर पर खड़ा है | जब बम-बर्षक विमानों से आग के गोले बरसाए जा रहे हों, यानी आग की वर्षा हो रही हो और इस आग में न जाने कितने शहर और कितने लोग जमींदोज हो रहे हों, तो ऐसे में मानवीय मूल्यों की सुरक्षा हेतु पन्थ-निरपेक्ष विशुद्ध ज्ञान तथा आचरण की आवश्यक आवश्यकता महसूस होती है |
इसी परिप्रेक्ष्य में “संत” शब्द को परिभाषित करनेवाले शब्दों पर भी विचार करना लाजिमी है | निजी स्वार्थवश संत शब्द को कुदाली की भाँति व्याख्यायित करनेवाले संतों की तो कतई आवश्यकता नहीं | दुर्भाग्यवश, अधुना शिष्यों द्वारा ही अपने गुरुओं को संत, सद्गुरु, हंस,परमहंस स्वामी आदि जैसे सम्मानजनक प्रमाण-पत्र दिए जाने की परम्परा चल पड़ी है | जो अतिखेद्नीय है | ऐसी दृष्टी परम्परा और व्यवहारिकता में भी कहीं से मान्य नहीं है तो फिर साधु-संतों और फकीरों के लिए सर्वमान्य कैसे ?
सत यानी सच क्या है इस सृष्टि में, इस ज्ञान के इस अभाव में वर्तमान विचलित हो रहा है | वर्तमान में सत्य को जिन अर्थो में तथाकथित संतों द्वारा समझाया जा रहा है और इसे जानने- जनाने के निमित्त जो विधाएं सुलभ करयी जा रही है, वे कितने हद तक सत्य के करीब ले जा पा रही है इसका प्रभाव आज के सोच से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है |
इस अघोषित सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि गड्ढे के पानी में सडन और दुर्गन्ध एक स्वभाविक प्रक्रिया के तहत आ ही जाती है जबकि, बहते जल में यह सम्भव ही नहीं | लगभग यही स्थिति वर्तमान में स्पष्टतया द्रष्टव्य है | जिस किसी भी पन्थ या सम्प्रदाय में वैचारिक स्वतन्त्रता पर ताले जड़ दिए जाते हैं तो विकृतियाँ आ ही जाती है | जब, लोगों द्वारा अपने अनुयायियों को घेरकर एक ही बाड़े में रखने और विस्तार नीति के निमित्त गुरु या उपदेशक के रूप में अन्य किसीको वरण करने से मना करने या गुरु के रुष्ट होने का भय दिखाकर यह समझाया जाता हो कि – “कर्ता जो न कर सके, गुरु करे सो होय |” जब यही धारणा चल पड़ती हो तो चलेगा ही तथाकथित संतत्व की परिधि में शारीरिक, आर्थिक, मानसिक दोहन का क्रम |
विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में सनातन संस्कृति को और प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में “वेद” को ही वैश्विक मान्यता प्राप्त है | वेद से तात्पर्य है – “अविदितं वेदितव्यम” यानी “अविज्ञात ज्ञातव्यम” जो अविदित सत्य है उसे विदित कराने की क्षमता से युक्त सूत्रों के संचयन का नाम ही वेद है | कालान्तर में जब, उन वैदिक ऋचाओं को जानने-समझनेवाले लोगों की संख्या कम होती चली गयी तब, कथानक द्वारा समझाने के निमित्त पुराणों की रचना की गयी जो साकार ब्रह्म की अवधारणा को पुष्ट करती चली गयी और यहीं से निराकार और साकार के तात्विक भेद में दूरियाँ और कटुता बढती चली गयी | जिसके फलस्वरूप विभिन्न सम्प्रदाय अवतरित हुए और मानवता टुकड़ों में बंटती चली गयी |
वैमनस्यता इतनी बढती चली गयी कि लोग आपस में मरने-मारने पर उतारू हो गये | ऐसी परिस्थितियों में संतों ने आंचलिक भाषाओं में वेद के उस परमज्ञान को प्रचारित कर आपसी सद्भाव और सामाजिक समरसता स्थापित करने में अहम योगदान दिया, जिसे भुलाया नहीं जा सकता | ऐसे संत जाति – सम्प्रदाय से उपर उठकर इस उद्घोष के साथ समाज को प्रेरित करते रहे – “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान |” मानवीय मूल्यों की स्थापना करते हुए “वसुधैव कुटुम्बकम” का संदेश दिया |
इसी क्रम में – सूर, तुलसी, नानक, कबीर बुल्लेशाह, मीरा, सहजोबाई, आदि कई नाम श्रृंखलाबद्ध हैं, जिन्होने वेदों के सारे रहस्यों को आंचलिक भाषाओं में पिरोकर आमलोगों में मानवीय मूल्यों को सुरक्षित किया | ऐसे ही संतों के क्रम में बीसवीं शताब्दी में बिहार के एक संत महर्षि मेंहीं दास जी का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने अपने शतकीय जीवन यात्रा में वर्तमान समाज के उपेक्षित और तिरस्कृत लोगों को एकीकृत करने का सराहनीय कार्य करते हुए ईश्वरीय ज्ञान प्रचारित कर इहलौकिक लीला सम्पन्न की |
ऐसे संतों के संदेशों की गहराई में जाने पर आश्चर्यचकित होना पड़ता है | जो कहते है – “मसि कागद छुआ नहीं कलम गह्यो नहीं हाथ” और वेद-ज्ञान की सम्पुष्टि में छ: शास्त्र यथा- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांशा और वेदान्त के गूढ़ रहस्यों का उल्लेख आंचलिक भाषा में करते हैं | चाहे वे किसी जाति या सम्प्रदायों से ताल्लुक रखते हों |
आमलोगों में प्रचलित है कि “नुक्ते के हेर फेर से खुदा भी जुदा हो जाते हैं |” नुक्ता यानी बिंदु यानी अनुस्वार कोई इसका प्रयोग सत के उपर लगाकर संत हो जाते है तो कोई नीचे प्रयोग कर खुदा, पर लगाते सभी हैं | विन्दुपनिषद के अनुसरण में विन्दु ही ब्रह्म है, की अनुभूति कराने का प्रयत्न करते हैं |
संत ही सगुण-साकार और निर्गुण-निराकार ब्रह्म के भेद को पाटते हुए उद्घोष करते हैं –
“सगुण लागे पिता हमारो, निर्गुण है महतारी
या को वन्दे वा को निन्दै, दोनों पलड़ा भारी
याको वन्दे वाको निन्दै ताको निगुरा कहिये
इससे न्यारा उसे न्यारा उस न्यारे में रहिये |”
वर्तमान के तथाकथित निराकारवादी ( ईस्लाम और ईसाई) ही आपस में विस्तारवादी नीति के तहत युद्धरत ही नहीं सम्पूर्ण मानवीय सभ्यता को नेस्तनाबूद करने में संलग्न हैं |
ऐसी विध्वंसात्मक परिस्थितियों में जहां अपना देश भारत विश्वगुरु के रूप में सर्वमान्य रहा हो वहाँ भी सम्प्रदाय और पंथों को अंग्रेजी शब्द “सेक्युलरिज्म” द्वारा धर्म से परिभाषित किया जा रहा है | जबकि, सेक्युलर का शाब्दिक अर्थ है – असम्प्रादायिक, जहां किसी सम्प्रदाय विशेष का कोई स्थान न हो और निरपेक्ष – निर्विकारता, निर्वैरता और निर्द्वन्द्ता की स्थिति हो | भारत में, जहाँ धर्म मानवता का मूल है तो आराधना पद्धति की शाखाएं और उपशाखाएँ मानवता का चरमोत्कर्ष भी |
ऐसे में दुनियाँ को फिर से निर्द्वन्द, निर्लोभ और निर्भीक संत और उनके संतत्व की अतिआवश्यकता है तभी मानव का आस्तित्व सुरक्षित रह सकेगा अन्यथा विनाश तो निश्चित है |
— श्याम “स्नेही” शास्त्री