कहानी

सुंदरता देखने वाले की आँखों में होती है

 

मैं पहली बार स्कूल गया था। बच्चों की भीड़ में मैं अपने आप को गुम महसूस कर रहा था। मैं दिखने में साधारण सा बच्चा था। मुझ में ऐसा कुछ भी आकर्षक नहीं था जो मैं टीचर को अपनी ओर आकर्षित कर के रख सकता या कोई मुझे देख के फट से मुझ से दोस्ती कर लेता। किसी भी प्रकार से मैं अमर की बराबरी तो नहीं कर सकता था।
अमर देखने में दिव्य स्वरूप वाला चित्ताकर्षक बच्चा था। हर कोई उसे अपना खिलौना बनाने को तैयार था। टीचर से लेकर राह चलते अजनबियों तक को वह अपनी ओर खींच लेता था। कोई उसे एक बार गोद में उठाए बगैर नहीं रह पाता। मेरी क्लास की नन्ही-नन्ही नटखट बालिकाऐं उसके गाल को खींच कर भाग जाया करतीं थी और वह अपनी कृष्ण-मुस्कान के साथ अपने गाल को साफ़ करता था जैसे उन बालिकाओं के हाथों से उसके गाल गंदे हो गए हों।
स्कूल के पहले ही दिन मेरी दोस्ती अमर से हो गई। उस दिन घर पँहुँचकर माँ के पूछने पर मैंने बताया कि मैंने स्कूल में कैसे दिन बिताया। माँ को भी जानकर बहुत संतोष हुआ कि स्कूल में मेरा कोई दोस्त बन गया है।

एक दिन बहुत बारिश हो रही थी इसलिए माँ मुझे लेने ऑफिस से सीधे स्कूल आ गई। माँ को स्कूल के गेट पर देखकर मैं बहुत खुश हुआ। मेरी बाँछें खिल गई और मैं अपनी रफ़्तार से कहीं अधिक तेज़ दौड़कर माँ से लिपट गया और उनकी बड़ी-बड़ी बाँहों में मैं रेश्मी कीड़े सा सिमट गया। माँ ने भी मुझे ऊपर उठा लिया और अपनी बंद मुठ्ठी में से एक चॉकलेट निकालकर दिया। मैं चॉकलेट बहुत पसंद नहीं करता था …हाँ थोड़ा-थोड़ा पसंद करता था लेकिन उस दिन मैं किसी ऐसे उन्माद में था कि मेरे लिए वो चॉकलेट कोई ट्रेन खरीदकर देने से कम नहीं लग रहा था(मैं बड़ा होकर ट्रेन ड्राइवर बनना चाहता था)।
वहीं पीछे से मैंने अमर को आते देखा। उसे मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाई और अपनी चॉकलेट दिखाई। “देख! मेरी मम्मी ने दिया”। उसने ललचाई नज़रों से चॉकलेट को देखा। उसे ललचाते देख जाने मुझे किस अंदरूनी तृप्ति का एहसास हुआ जो मैं उसे और गोल-गोल घुमाकर दिखाने लगा। इतने में माँ बीच में बोल पडी “हूं….तो ये है तुम्हारा दोस्त-अमर”। “हाँ, मम्मी यही है, वो मैंने बताया था न कि लडकियाँ हमेशा इसके गाल में चॉक लगा कर भाग जाती हैं और ये रोज़ और गोरा हो जाता है, वही वाला अमर है ये”। अमर यह सुनकर शर्म से गड़ गया और नीचे की ओर देखते हुए अपने जूतों से मिट्टी खोदने लगा।
मेरी माँ ने उसके गाल को खींचते हुए कुछ कहा। क्या कहा वह याद नहीं क्योंकि मुझे उस वक्त माँ पर अचानक जाने क्यों इतना क्रोध आ रहा था कि कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था, केवल माँ का अमर को पुचकारना दिख रहा था। मेरे नन्हें से तन-बदन में आग लगी हुई थी। तब तक मम्मी ने पर्स से एक और चॉकलेट निकाली और अमर की ओर बढ़ा दी। मैं अवाक रह गया। मम्मी के पास एक और चॉकलेट थी अगर थी तो सारी चॉकलेट मुझे क्यों नहीं दी? नहीं दी तो नहीं दी, अमर को क्यों दी? वो उनका बेटा थोड़े ना है। उनका बेटा तो मैं हूँ। फिर माँ ने उसे कुछ देर के लिए गोद में उठाया और मैं यह सारा नज़ारा देखता रहा। अब मुझे ऐसा लग रहा था कि मम्मी स्कूल आई ही क्यों? न आती तो अच्छा होता! सारी दुनिया अमर को प्यार करती है क्योंकि वह मुझसे सुंदर है। लेकिन मेरी माँ भी मुझे छोड़कर अमर को प्यार करेगी, ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी मम्मी दुनिया की सबसे गंदी मम्मी है। काश मैं पैदा ही नहीं होता। काश मेरी मम्मी अमर की मम्मी होती तो मुझे कुछ फर्क ही नहीं पड़ता। मैंने मुँह लटका लिया और लटके हुए मुँह से मेरी नज़र उस चॉकलेट पर गई जो मैंने थाम रखी थी। अपना गुस्सा मैने चॉकलेट पर उतारा और उसे वहीं ज़ोर से पटक दिया। मेरी मम्मी तो उस अमर को प्यार करने में इतनी मशगूल थी कि उसे पता ही नहीं चला कि कब मैने उस चॉकलेट रुपी राज्य का त्याग कर उदासी रुपी सन्यास धारण कर लिया।
मम्मी जब उसको पुचकार कर तृप्त हो गई तो मेरा हाथ पकड़कर मुझे घर की ओर ले चली। कुछ दूर जा कर जब मैंने पलटकर गुस्से से अमर को देखा तो वह खुशी से अपना चॉकलेट मुझे गोल-गोल घुमाकर दिखा रहा था। मैंने गुस्से से अपना मुँह फेर लिया और साथ ही मेरी आँखें भर……, मन किया कि मम्मी का हाथ छुड़ाकर कहीं दूर भाग जाऊँ और फूट-फ़ूटकर रोऊँ। कहीं ऐसी जगह जहाँ मुझतक कोई न पँहुच सके।
जैसे-तैसे हम घर पँहुँचे। उस दिन मैंने खाना नहीं खाया। मम्मी ने बहुत मनाने की कोशिश की लेकिन मैं नहीं माना। अच्छा है! मम्मी को भी तो सज़ा मिलनी चाहिए।
“आखिर हुआ क्या है? स्कूल में तो तू बड़ा खुश था?”
“एक बार बोला न कि मेरे स्कूल तुम फिर कभी मत आना।” “लेकिन क्या बात है? बेटा तुम्हें तो खुश होना चाहिए की मम्मी तुम्हें लेने के लिए स्कूल आई।” “लेकिन मैं खुश नहीं हूँ न।” “बात क्या है?” “ओफ्फो! आप क्या छोटी बच्ची हो जो मैं बार-बार आपको एक ही बात बोलूँ? एक बार बोल दिया न नहीं आना मतलब नहीं आना? अगर आप आओगी तो मैं खाना नहीं खाऊँगा” “ठीक है बाबा नहीं आऊँगी।” “पक्का वादा! नहीं आओगी?” मम्मी ने हाँ में सिर हिलाया। “नहीं ऐसे नहीं। कसम खाओ मेरी तरह, आप भी अपनी मम्मी की कसम खा कर कहो” “हाँ बाबा ले मेरी मम्मी की कसम” “नहीं आप तो नानी को मम्मी नहीं कहती माँ कहती हो” “अच्छा बाबा ले मुझे मेरी माँ की कसम मैं कभी तेरे स्कूल नहीं आऊँगी। अब तो खुश। अब तो चलकर खाना खा ले।”
मैं सचमुच खुश हो गया क्योंकि मैंने अपनी छोटी सी बुद्धि से अपनी एक बड़ी सी समस्या हल कर ली थी। अब न मम्मी स्कूल आऐंगी और न ही वो धीरे-धीरे अमर के पाश में फंसकर उसकी मम्मी बनेंगी जैसे स्कूल में सब टीचर और क्लास के बच्चे बन जाते हैं। मैं बहुत खुश था और अब अमर से भी मुझे कोई शिकायत नही थी।
हाँलाकि मम्मी उस दिन समझ नहीं पाई कि मुझे आखिर हुआ क्या था, उन्हें यह बात समझने में सात साल का लंबा समय लगा और जब उन्होंने यह बात ठीक-ठीक समझी तो उन्होंने मेरी दुनिया ही बदल दी और इतनी खूबसूरत बना दी जिसके आगे अमर की खूबसूरती भी फीकी पड़ गई। लेकिन इन सात सालों में मम्मी कभी स्कूल नहीं आई। एक अच्छी बालिका के समान उन्होंने मेरी बात रखी हाँलाकि मैं इस बात को उम्र के उसी पड़ाव पर छोड़ आया था।

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मेरे स्कूल में नई इंग्लिश टीचर आई थीं- मिस श्रद्धा। हम सब की वह फेवरेट टीचर बन गई थी। बहुत अच्छी टीचर थी, बहुत अच्छा पढ़ाती थीं। हमारी सारी बातें बड़े ध्यान से सुनती थी और कभी-कभी मन न होने पर इंग्लिश पीरियड में गेम्स भी खेलने देती थी। वे सुंदर भी थी लेकिन अमर से ज़्यादा नहीं, अमर से ज़्यादा कोई हो ही नहीं सकता। इन सात सालों में अमर के साथ मेरी दोस्ती और गहरी हो गई थी। अब हम दोनों का सबसे पसंदीदा विषय अंग्रेज़ी हो गया था( साथ-साथ क्लास के सभी लडकों का भी)। उन्हीं दिनों वार्षिकोत्सव के लिए सातवीं कक्षा के बच्चों से अंग्रेजी में नाटक करने को कहा गया। ज़ाहिर है, श्रद्धा मिस को ही सारा संचालन करना था। अमर को अभिनय में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन मुझे थी और बहुत थी।
मिस ने शेक्सपीयर का नाटक रोमियो और जूलियट चुना। मुझे पूरा आत्मविश्वास था कि मुझसे अच्छा रोमिया का अभिनय कोई कर ही नहीं सकता, मैं तो इसी भूमिका को निभाने के लिए बना हूँ। परंतु मेरी आशा के विपरीत रोमियो का पार्ट खेलने के लिए मिस ने अमर को चुना। वैसे तो अमर को नाटक का बहुत शौक नहीं था लेकिन मिस के आगे हीरो बनने का तो था। मिस को मना करना उसके बस की बात नहीं थी और अमर के रहते हुए मिस से वह पार्ट माँगना मेरे बस की बात नहीं थी।
मैं मन ही मन बहुत दु:खी था। मैं अब बस यही सोचा करता कि अगर मैं अमर की तरह सुंदर होता तो मेरे साथ ऐसा न होता। भगवान ने मुझे इतना सुंदर क्यों नहीं बनाया। कहीं न कहीं मैं अमर से भी रुठा हुआ था। अमर मेरे पास आकर ढेरों बातें करता मगर यह ध्यान नहीं देता कि मैं सुन भी रहा हूँ या नहीं। मेरी उसकी बातों में दिलचस्पी बिलकुल खत्म हो गई थी। धीरे-धीरे मैं उसकी बातों को काटने लगा और कुछ समय बाद उससे बेवजह की बहस भी करने लगा। अमर को यह सब अच्छा नहीं लगता था लेकिन मेरा दोस्त होने के नाते वह मेरे व्यवहार को सहता था लेकिन वह नहीं जानता था कि मुझे क्या हो गया है और सच पूछो तो मैं भी नहीं जानता था। उन दिनों मैं गोरा बनने का बहुत प्रयास कर रहा था। मम्मी को बताऐ बिना उनके श्रृंगार का समान प्रयोग करता था। पर पता नहीं कैसे उन्हें पता लग जाता था। यह वह नहीं कहती थी लेकिन उनकी आँखे मुझसे कहती थी कि “तुमने मेरा क्रीम लगाया है न!” मेरे चेहरे का उड़ा-उड़ा रंग, मेरी चाल से टपकती परेशानी और मेरा बुझा हुआ मन, मम्मी सब पढ़ लेती थी। उन्होंने तो खुलकर पूछा भी कि कोई परेशानी हो तो बताऊँ। लेकिन मैं उन्हें बताता भी क्या, कि मुझे आपने गोरा क्यों नहीं पैदा किया?
अमर अक्सर शाम को मेरे घर आता था। मैं बरामदे में ही बैठा था जब मैंने उसे दूर से ही आते देख लिया। खेलने का मेरा मन नहीं था। मैं उठकर भीतर आ गया और माँ से कहा कि वे अमर को जाने के लिए कह दें और कह दे कि मैं घर पर नहीं हूँ।
मगर माँ ने कहा-“क्यों तुम दोंनो के बीच लड़ाई हो गई है क्या?” “नहीं तो” “फिर बाहर जाकर खेलते क्यों नहीं? ऐसे ही गुमसुम बैठे हो। जाओ जाकर खेलो तुम्हारा मन बदल जाएगा।” “मेरा मन नहीं है।” इतने में अमर आ गया।
“नमस्ते आंटी।” “नमस्ते बेटा।” “आंटी हम दोनों बाहर खेलने के लिए जाऐं?” “हाँ हाँ, जाओ, देखो यह भी कब से चुपचाप बैठा है। तुम्हारे साथ खेलेगा तो खुश हो जाएगा।” “हाँ आंटी स्कूल में भी ऐसे ही करता है।” “किसी टीचर ने डाँटा क्या?” “नहीं आंटी। ऐसा तो कुछ भी नही हुआ।” “अच्छा ठीक है। अभी इसे ले जाओ लेकिन अंधेरा होने से पहले दोनों घर आ जाना वरना तुम्हारी मम्मी भी चिंता करेगी।”
“ठीक है आंटी हम अंधेरा होने से पहले आ जाएंगे” “बाई बाई आंटी” “बाई”
उस दिन मेरे कहने पर हम खेलने नहीं गए बस यहाँ-वहाँ घूमते रहे और अंधेरा होने पर मैं घर आ गया। मम्मी मेरी राह देख रही थी। मुझे हाथ-मुँह धोकर आने को कहा। जब हाथ-मुँह धोकर आया तो रोज़ की तरह माँ ने दूध दिया और साथ ही ढेर सारे सवाल भी दिए जिनसे मैं, पता नहीं क्यों, गुस्से में आ गया। “तुम आज कल इतना उदास क्यों रहते हो, मेरे मेक-अप का समान क्यों इस्तेमाल करते हो, अमर से भी नहीं मिलना चाहते हो, क्या बात है? बहुत परेशान रहते हो, किसी टीचर ने कुछ कह दिया, बताओ तो सही हम टीचर से बात करेंगे, प्रिंसिपल से बात करेंगे, वगैरह-वगैरह। जब मेरे बार-बार यह कहने के बाद भी कि कुछ नहीं है, माँ ने मेरा पीछा न छोड़ा तो मैंने दूध से भरे काँच के ग्लास को दीवार पर दे मारा और गुस्से में उठकर चला गया और अपने कमरे में जाकर रोने लगा। मुझे बुरा लग रहा था कि मैंने ऐसा क्यों किया। लेकिन मैं भूतकाल में जाकर इसे बदल नहीं सकता था इसलिए अपनी स्टडी टेबल पर सिर रखकर रो रहा था। इतने में किसी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा। मैने अपनी धुंधली आखों से देखा तो माँ थी। “सॉरी मम्मी, आई एम रियली सॉरी, अब मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा’, इतना कहते-कहते मैं माँ से लिपट गया और जोर-जोर से रोने लगा। माँ ने मेरा चेहरा पोंछते हुए पूछा कि “बेटा बात क्या है?’ मैंने सुबुकते हुए अपनी बात कही, जिसे सुनकर माँ मुस्कुरा दी। माँ की मुस्कुराहट देखकर एक पल के लिए मुझे बहुत खीझ आई। यह सब बड़े लोग हम बच्चों की बड़ी से बड़ी प्राब्लम को इतना छोटा क्यों समझते हैं। खैर माँ ने मुझे बिस्तर पर बिठाया और खुद मेरे बगल में बैठ गईं। मेरी स्थिति को इस वक्त वो जितने अच्छे से समझ रही थीं उतना मैं भी नहीं समझ रहा था। उन्होंने मेरे आँसू पोंछते हुए कहा “अच्छा! तो नाटक में तुम्हें रोमियो का रोल नहीं मिला और तुम्हें ऐसा लगता है कि अमर तुमसे ज्यादा सुंदर है इसलिए उसे यह रोल मिला…..तुम से किसने कहा या तुम्हें क्यों लगता है कि अमर तुमसे ज्यादा सुंदर है।”
“इसमें लगना क्या है? अमर तो मुझसे सुंदर है ही और इसीलिए उसे यह रोल मिला है।”
माँ एक बार फिर हँसी और फिर गंभीर सोच में पड़ गई। आगे जो शब्द माँ ने कहे वह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। आगे कही गई बात मेरे जीवन का आधार बन गई और जीवन-पर्यंत इस बात ने मुझे मेरा अस्तित्व बनाने में मदद की।
माँ ने मेरी ओर ध्यान से देखते हुए कहा “सुंदरता देखने वालों की आँखों में होती है।“ मैंने सोचा माँ यह क्या बक रही है भला किसी की आँख में सुंदरता कैसे हो सकती है? मैंने अपनी प्रश्नचिह्नित आँखों से माँ को देखा। “बेटा! जब तुम अच्छे-अच्छे कपड़े पहन कर किसी पार्टी में जाते हो तो लोग तुम्हें कैसे देखते हैं, ऐसे ही न कि वे आँखों से तुम्हारी तारीफ कर रहे हों?” मुझे माँ की ये बात समझ में आई और मैंने हाँ में सिर हिलाया। “वही जब तुम रोज सामान्य से कपड़े पहनकर जाते हो तो भी लोग तुम्हें देखते तो हैं लेकिन उनकी आखों में प्रशंसा नहीं होती क्योंकि तुम उतने अच्छे नहीं लगते हो।” “हाँ ऐसा तो होता है। लेकिन ये तो सबके साथ होता है।” “बिल्कुल सही! ठीक इसी तरह जब तुम किसी की मदद करते हो या किसी के साथ अच्छा व्यवहार करते हो तो उसकी आँखों में तुम्हारे लिए प्रशंसा होती है, होती है कि नहीं?” “हाँ होती है। श्रुति को एक दिन उसकी पेंसिल टूट जाने पर मैंने अपनी पेंसिल दी थी। तब से उसकी आँखों में मेरे लिए वही प्रशंसा है और वह लड़ती भी नहीं और अमर से नहीं बल्कि मुझसे ज्यादा बातें करती है’ “ठीक इसी तरह जब भी हम अच्छे-अच्छे काम करते हैं तो लोगों की आखों में और ज्यादा सुंदर हो जाते हैं, लेकिन ये सुंदरता केवल लोगों को दिखाई देती हमें नहीं। जब हम शीशे के सामने खड़े होंगे तो हम वैसे ही नज़र आएंगे जैसे हैं लेकिन जब लोग हमें देखेंगे तो हम उन्हें ज्यादा सुंदर नज़र आएंगे क्योंकि हमारे अच्छा काम करने से उनकी नज़रो में हमारे लिए सुंदरता बढ़ जाती है। और याद रखना बेटे यह सुंदरता अमर की सुंदरता से ज्यादा अच्छी है क्योंकि अमर की सुंदरता और नहीं बढ़ सकती लेकिन यह सुंदरता जितने ज्यादा अच्छे काम करोगे उतनी ज्यादा बढ़ेगी। अब देखो! अमर को रोमियो का रोल मिला है और तुम्हें बेनेलीविओ का। लेकिन अगर तुम बेनेलीविओ का रोल अमर से ज़्यादा अच्छा करोगे तो उसकी सुंदरता से तुम्हारी सुंदरता ज्यादा हो जाऐगी और जो तुम कहते हो न कि अमर को उसकी सुंदरता के लिए लोग पसंद करते हैं वो तुम्हें तुम्हारी सुंदरता के लिए ज़्यादा पसंद करेंगे।”
माँ की ये बात मैंने गाँठ बाँध कर रख ली और उनकी बात में कितनी सच्चाई है इसे परखने का मौका मुझे तब मिला जब शहर के सारे स्कूलों के सामने रोमियो-जूलियट का नाटक खेला गया। मैंने बहुत दिल लगाकर अपनी भूमिका निभाई और हमारे नाटक पर खूब तालियाँ भी बजी। दरअसल मेरे अभिनय ने नाटक में जान डाल दी। जिस तरह मैं अपना मुँह बनाता और अपनी आवाज़ में उतार-चढाव कुछ यूँ लाया की छोटे से रोल में ही बहुत कुछ निभा गया। अमर ने भी अपना पार्ट अच्छे से खेला लेकिन वह बीच में एकाध लाइनें भूल गया। नाटक के बाद जब मिस श्रद्धा हमारे पास आईं तो सीधे मेरे बालों को झटकतें हुए बोली “वेल डन! इन फैक्ट रोमियो का रोल तुम्हें ही देना चाहिए था। कोई बात नहीं।”
“थैंक्यू मिस” मैं इतना कहकर पीछे हट गया। मैंने मिस की आँखों में उस समय अपने लिए वो सुंदरता देखी थी जो कभी अमर के लिए भी नहीं देखी। मिस ने अमर को देखा और बस इतना कहा “तुमने भी अच्छा किया। अमर”।
उस दिन से मिस की आँखों में मैंने अपने लिए रोज़ और ज़्यादा सुंदरता देखी क्योंकि रोज़ मैं अच्छे से अच्छा काम करता। मुझे जो भी काम दिया जाता मैं उसे अच्छा से अच्छा करने की चेष्टा करता। उस दिन के बाद से सारे महत्वपूर्ण काम मिस मुझे ही देती थीं। हाँलाकि मैं रोज आईने में चेक करता था कि कहीं मैं अमर से ज़्यादा सुंदर तो नहीं हो गया था। लेकिन माँ सही कहती थी, मुझे अपनी सुंदरता दिखाई नहीं देती थी लेकिन दूसरों की आँखों में ज़रूर नज़र आती थी।
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बैंक में बहुत भीड़ है। लगता है आज काफी देर लगेगी। खैर आज केवल फार्म भर कर रख लेता हूँ, कल फिर आ जाऊँगा वैसे भी रिटारयमेंट के बाद काम ही क्या है मुझे। मैं जोड़ों के दर्द का ख्याल करते हुए जोड़ों पर दोनों हाथ रखकर बल लगाते हुए उठा और उस तरफ चल दिया जहाँ रिक्त फार्म रखे थे। वहीं एक युवती भी खड़ी थी जो काफी दुविधा में लग रही थी। मेरा अनुभव बता रहा था कि वह पहली बार किसी बैंक में आई थी। मैंने पूछा “कौन सा काउंटर ढूँढ रही हो बेटा?”
मेरी आत्मीयता देख उसकी बाँछें खिल गईं और उसने कहा “डी डी काउंटर” “उस तरफ से तीसरा काउंटर है। डी डी का फॉम भर लिया?” “नहीं अंकल। दरसल मैं पहली बार बैंक आई हूँ। आज ऐंटरेंस एक्ज़ाम का अपलीकेशन भरने की लास्ट डेट है। क्या आप मेरी हेल्प करेंगे प्लीज़?”
मैंने उस लडकी की मदद की। बैंक के बाहर जाने से पहले उसने उस भीड़ से मुझे ढूँढ निकाला और बोली – “थैंक्यू अंक्ल। अगर आज आप मेरी मदद नहीं करते तो शायद मैं एक्ज़ाम के लिए अप्लाई ही नहीं कर पाती।”
वहाँ कई लोग थे, एक से एक खूबसूरत। कई नौजवानों के चेहरे पर खून की लाली उषा की किरण सी बिखरी हुई थी, कई नव-युवतियाँ अपने यौवन से सुगंधित पुष्गुच्छ को भी मात दे रहीं थी। सब एक से एक पढे-लिखे और सुसभ्य। लेकिन उस लड़की के लिए वे सब तुच्छ वस्तु के समान अदृश्य थे। उसकी आँखों में मैंने केवल अपने झुर्रियों से भरे चेहरे के लिए सुंदरता देखी। मम्मी को गुज़रे 40 साल हो गए हैं। आज भी मैं जिंदगी के दिए सारे रोल अच्छी तरह से निभा रहा हूँ। आइना आज भी मुझे ठेंगा दिखाता है लेकिन औरो की आँखों में झाँकता हूँ तो अपने आपको बेहद खूबसूरत पाता हूँ। आज भी उनकी बात बिल्कुल सच है कि “सुंदरता देखनेवालों की आँखों में होती है”।
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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com