ग़ज़ल
जिंदगी हारी हुई बाजी हो
क्यों उस बात पर राजी हों ।।
कहाँ करे बयां ए बेगुनाही
जब सारी दुनिया काजी हो।।
मुस्तकबिल संभालूं क्यों न
लाख बेजार मेरा माजी हो ।।
वक्त तू इतना ही वफा कर
कोई एक मेरे दर्द का साझी हो।।
कल मिट्टी में मिल जाना है
आज कितनी भी शेखीबाजी हो ।।
जब हैँ बसिन्दा ए रंजो गम
फिर तन्हाई के क्यूं न रेवाजी हों ।।
क्या जुबां में मिश्री घोलें
जब बज्म में बदमिजाजी हो ।।