मज़ार की दीवार
मैं क्या किसी मज़ार की दीवार हूँ
जहाँ उम्मीद के धागे बाँधे जाते हैं
हर किसी की उम्मीद को पूरा करूँ
क्यों सब ऐसी आस लगाते हैं
हर ख़्वाहिश पूरी हो, ज़रूरी तो नहीं
दीवार ही तो हूँ, कोई परी तो नहीं
कुछ आधी अधूरी ख़्वाहिशों का बोझ है
जो सदियों से लिए खड़ी हूँ
जहाँ खड़ी थी वहीं खड़ी हूँ
न पीछे गई न आगे बढ़ी हूँ
जो कुछ उम्मीदों पर खरी उतरी
कुछ उम्मीदें जश्न वाली
तो धागे खोल लिए जाते हैं
और छोड़ जाते हैं दीवार खाली
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सुन्दर पंक्तियां!!
शुक्रिया
जहाँ खड़ी थी वहीं खड़ी हूँ
न पीछे गई न आगे बढ़ी हूँ अत्ती उत्तम पन्क्तीआन .
शुक्रिया