कहानी

बन्दी

शुरू-शुरू में तो शब्द साफ़ नहीं सुनाई देते थे, मगर आज तीन महीने बाद सरिता को बच्चों की ये प्रार्थना याद हो गई है; बल्कि वो तो इंतज़ार करती है कि कब साढ़े नौ बजें और वो भी यह प्रार्थना गुनगुना सके।

प्रार्थना ख़त्म हो गई…मतलब कपड़े धोने का समय हो गया है। आज से परदों की सफ़ाई भी की जाए ताकि दीवाली तक सारे परदे और चद्दर धोने का काम ख़त्म हो जाए और पंखों और जालों की सफ़ाई पर ध्यान दिया जा सके।

रमेश के कुर्ते से आज फिर इत्र की गंध आ रही थी। सरिता ने नाक से कुर्ते को चिपका कर ज़ोर से सूँघा। रमेश के पास तो ऐसा कोई इत्र नहीं है। सरिता ने फिर से सूंघा। यह तो लेडीज़ परफ्यूम लग रहा है।

इतने में रसोई की खिड़की पर से बिल्ली की आवाज़ आई। आज सोना इतनी जल्दी कैसे आ गई? ख़ैर सरिता ने खिड़की खोली। सोना मासूम आँखों से अंदर झांक रही थी। सरिता ने रात की रोटी उठाई ही थी कि सोना की आँखें चमक उठीं और उसकी पूँछ हिलने लगी। सोना रोटी लेकर चली गई। खाना क्या बनाएं। सोना के जितनी ही भूख सरिता की ही है। सोना को देने के बाद भी जब रोटी बच ही जाए तो खाना क्या बनाना। रमेश तो रात को ही काम पर से लौटेंगे। आठ बजे…..नौ बजे…..या फिर कल रात की तरह दस बजे। कहते हैं काम बढ़ गया है। कभी-कभी तो रात को भी रुकना पड़ता है। कौन सी फैक्ट्री? पता नहीं। कभी बताते नहीं। कहते हैं क्या करोगी जानकर। सही भी है जब कहीं आना-जाना नहीं। जब किसी से बोलना बतियाना नहीं और जब इन्होंने मुझे ताले में ही रखना है तो कुछ भी जानकर क्या करूंगी।

इतने में ताला खोलने की आवाज़ आई। रमेश ताला खोलकर भीतर आया और सरिता से पूछा “मेरी कल वाली शर्ट कहाँ है?”

“धोने डाली है”

“उसमें कुछ कागज़-पत्तर थे।”

“ताखे पर रखे हैं”

रमेश ने तेज़ी से उन कागज़ों को उठाया और बाहर जाने के लिए मुड़ा। तभी सरिता ने हिम्मत जुटाकर पूछा -“आपकी उस शर्ट से लेडीज़ परफ्यूम की गंध आ रही है।”

एक ही पल में रमेश के चेहरे पर सैकड़ों भाव आए और गए। पहले तो वह चौंका, फिर थोड़ा सकपकाया, फिर थोड़ा उलझन में रहा, फिर एकदम से सुलझ गया, फिर मुस्कुराया, फिर चेहरे को घृणा से भरते हुए कहा -“हुंह। लेडिस परफ्यूम और जेंट्स परफ्यूम तुम क्या जानो। कभी तुम्हारे बाप ने भी लाकर दी है।”

फिर कुछ न सुनने और कुछ न कहने की गुंजाइश छोड़ते हुए वह बाहर निकल कर ताला लगाने लगा। रमेश की इस उलाहना ने सरिता को कुछ साल पहले की यादों में ढकेल दिया।

सल्फेट और नाइट्रेट की गन्ध से पूरी प्रयोगशाला महक रही थी। एल्कलाइन बेस बनाने में रंगो का खेल दिखाना सरिता के लिए मदारी के खेल से कम न था। सरिता ने पिपीट में अल्कली खींची तो सड़ाक से मुंह में और मुंह से नाक में पहुंच गई। मुंह से बाहर उलटते और नाक पोंछते हुए सरिता खांस रही थी जब टीचर ने कहा। “तुम बाहर जाकर मुंह धोओ और हवा खाओ। वैसे भी तुम्हे इस एक्स्ट्रा क्लास की ज़रूरत नहीं थी। तुम तो पहले ही एक्सपर्ट हो।”

सरिता अभी दरवाज़े तक ही पहुँची थी कि पीछे से कुछ गिरकर टूटा। सरिता ने जाते-जाते टीचर की झल्लाहट भरी आवाज़ सुनी -“विकास। तुम लैब के सारे टेस्ट ट्यूब तोड़ चुके हो। एक्सपर्ट हो तुम इस में, बस करो अब। निकलो क्लास से बाहर वरना मैं तुम्हें प्रैक्टिकल एग्जाम में बैठने नहीं दूंगा। इसी वक़्त मेरी नज़रों से दूर हो जाओ।”

विकास बाहर आ गया। सरिता को पीछे से आवाज़ दी- “ऐ सोन चिरैयाँ। कहाँ फुदक रही है।”

“तेरी बारात लाने बागड़बिल्ले”

“क्यूँ क्यूँ मेरी बारात क्यूँ? अपनी डोली क्यूँ नहीं उठवाती?”

“पढ़ाई तू नहीं कर रहा। तेरी शादी होगी निक्कमे। मैंने क्या किया है जो मेरी शादी होगी।”

दोनों नल पर पहुंच चुके थे। सरिता अपना एल्कलाइन मुंह पानी से धो रही थी जब विकास दूर कहीं आसमान में खोया हुआ बोला- “मैं तो दुबई जाऊंगा।”

सरिता अपने सफेद दुप्पट्टे से मुंह पोंछते हुए बोली “लो तुम्हारा पुष्पक विमान अभी उतरने ही वाला है दुबई जाने के लिए।”

इस एक लाइन ने विकास को आसमान से जमीन पर पटक दिया।

“सही में। मैं मज़ाक नहीं कर रहा। एक ब्रोकर से सेटिंग की है। दुबई में नौकरी दिलवाएगा।”

“अच्छा। बढ़िया है। कब तक मिलेगी नौकरी तुझे?”

“जब तू अपने प्रैक्टिकल्स दे रही होगी। तब तक मैं छू मन्तर।”

“अरे नालायक। इम्तहान तो दे ले।”

“टॉप तू करनेवाली है तो एग्जाम में क्यूँ दूं।” बालों में उँगलियों की कंघी करते हुए विकास ने आगे कहा -“वैसे भी मैं तेरा चांस खराब नहीं करना चाहता।”

सरिता ने मुँह बनाते हुए कहा -“आहाहाहा। बड़ा आया।”

“और वैसे भी एग्जाम देकर क्या होगा। नौकरी ही तो पकड़नी है….चल छोड़। तुझे पार्टी देता हूँ।”

“अरे वाह। पूरे ग्रुप को मिलनी चाहिए पार्टी।”

“शीईईई…किसी को बता मत। मिल जाने दे नौकरी पहले फिर अपना ढोल मंझीरा निकाल लेना बाहर।”

“फिर कौन से होटल ले चल रहा है पार्टी के लिए।”

अब तक दोनों बात करते-करते स्कूल के बाहर आ गए थे।

“होटल तो मैं पूरे ग्रुप को ले जाऊंगा। मगर दुबई से लौटने के बाद। अगले साल जो भी जिस भी कॉलेज में होगा ढूंढ के निकालूँगा और पार्टी दूँगा। अभी तो सारे पैसे उस ब्रोकर में लगा दिए हैं।”

“ये लो। फिर क्या पार्टी-पार्टी चिल्ला रहा है।”

सामने चने की रेहड़ी लगी थी। विकास उस ओर देखते हुए बोला -“चिरैंया का तो चने से ही पेट भर जाएगा। चल तुझे चने की पार्टी देता हूँ।”

“तुझ से यही उम्मीद थी कंगले। चल।”

सरिता उन्मुक्तता से हँसते हुए उस चने की रेहड़ी पर अपने स्कूल के अंतिम दिनों को यादगार बना रही थी कि तभी सामने से साइकिल पर अपने चचा को आते देख लिया। एक ही पल में उसके चेहरे का रंग उड़कर सफ़ेद, एकदम सफ़ेद हो गया।

चचा ने देख लिया। अब क्या होगा। सरिता के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी। वह घण्टो तक यही सोचती रही कि घर कैसे जाएगी। अब तक तो बाबूजी को चचा ने भड़का दिया होगा। जब से बुआ की लड़की सब्जीवाले के साथ भागी है तब से परिवार की हर लड़की का जीना मुश्किल हो गया है। औरों को तो फर्क नहीं पड़ता। सबको तो ससुराल ही जाना है। मगर मुझे कितनी मुश्किल हो रही है, मुझे कुछ पढ़ना, कुछ बनना है। इन दकियानूसी रस्मों से बाहर निकलना है।

घर तो जाना ही था घर नहीं जाएगी तो आख़िर कहां जाएगी। दूर से ही अपने छोटे से घर के छोटे से बरामदे में टहल रहे छोटे से बाबूजी पर नज़र पड़ी। खाट पर बैठे चचा की नज़र सबसे पहले उस पर पड़ी। और पड़ते ही वे कुछ बोले जिसे सुनकर बाबूजी का टहलना रुक गया और वे भी उसे आता देखने लगे। किसी अपराधी की भांति सिर झुकाए सरिता ने घर में प्रवेश करने का प्रयास किया। मगर नहीं, प्रवेश नहीं मिला। पहले ही रोक ली गई।

“कहाँ गई थी।”

सभी जानते हैं कि स्कूल ही गई थी। स्कूल की यूनिफॉर्म में स्कूल का बस्ता लटकाए और कहाँ जा सकते हैं। मगर नहीं यह सवाल नहीं है यह उलाहना है। मगर जवाब तो देना ही था।

“केमिस्ट्री की एक्स्ट्रा क्लास थी।”

चचा बहुत उतावले हो रहे थे। पिताजी खड़े नहीं होते तो शायद अकेला पाकर वे पीट-पीटकर ही घर से बाहर खदेड़ देते। लेकिन अब भी कौन सा सब्र रखा है; टूट तो पड़े ही हैं और पिताजी का लिहाज भी नहीं किया।

“केमिस्ट्री क्लास क्या रेहड़ी पर होती है और पढ़ानवाले तुमरे मास्टर सरऊ जगदीश के लौंडा हैं।” आगे भी बहुत कुछ कहना चाहते थे चचा मगर अचानक ही उन्हें पिताजी का लिहाज हो आया।

सरिता ने गुस्से से चचा को देखा। पिताजी ने ये तो न देखा की चचा ने क्या कहा लेकिन सरिता की गुस्ताख नज़रें ज़रूर देखीं और सुना दिया सहस्राब्दियों से चला आ रहा तुगलकी फरमान।

विकास के मुट्ठीभर चने ने पूरा करियर तबाह करके रख दिया। उसका तो कुछ न बिगड़ा और दस लड़कियों के साथ वो चने खाता होगा और उनकी भी शादी कर दी जाती होगी। मुझे मेरे ही घर के पिंजरे में कैद कर दिया गया। एग्जाम तो खैर क्या देने देते और ज़ोर-शोर से लड़का देखा गया। फिर आव देखा न ताव शादी करा दी गई। ये भी नहीं देखा कि लड़का क्या करता है कहाँ रहता है। बस बिना माँ-बाप के है और मुंबई में मैनेजेर है। शादी में तो कितने झूठ बोले जाते हैं। कोई ऐसे कैसे कुछ भी मान लेता है। किसी ने कोई पड़ताल नहीं की। और तो और मैं अगर कुछ कहने की भी कोशिश करती तो मुँह खोलने से पहले ही सारा घर ‘जगदीश के लौंडे- जगदीश के लौंडे’ से गूँज उठता। रमेश को यह समझा-बुझाकर मेरी शादी की गई कि मेरा पढ़ने में दिल नहीं लगता मैं बस घर सजाने बसाने के लिए बनी हूँ।

सामने दीवार पर चिपकी चमेली ने चिक-चिक की आवाज़ की तो सरिता वापस लौट आई। वो लौट आई अपने नए पिंजरे में।

चमेली जिस हिस्से में है वहां कितने जाले लगें। सरिता का ध्यान अब दीवाली के लिए घर की सफाई पर चला गया। अभी वह जाले उतारने के लिए छड़ लाई ही थी कि बिजली चली गई और कोनों से वे जाले सरिता को मुँह चिढ़ाने लगे।

घर के दरवाज़े से लगी एक खिड़की भी है जिसे खोल देने से पूरे कमरे में रौशनी हो जाती है। इस बंद खिड़की के सामने इतना सारा सामान सरिता ने इसलिए रखा है कि रमेश को यह आभास न हो कि उसकी गैरमौजूदगी में सरिता उसे खोलती भी है। वरना हो सकता है रमेश यह खिड़की ही चुनवा दे। सरिता ने एक-एक कर आइना, तेल की शीशी, कंघी, सिंदूर के डिब्बे, टोर्च, शू ब्रश, शू पॉलिश, संदूक की चाभी, सिटकनी से लटकते छाते और एक टूटी हुई टोटी को खिडक़ी के सामने से हटाया और खिड़की के पट खोल दिए। बित्ते भर के कमरे में ढेरों रौशनी भर गई।

सरिता ने जाले उतार दिए मगर बिजली अब तक नहीं आई थी और वह पसीने से लथपथ हो चुकी थी। ऐसे में खिड़की से आ रही बयार ने सरिता को अपनी ओर खींच लिया। सरिता कभी खिड़की से बाहर झाँककर तीन मंजिल नीचे बने मैदान को देखती जहाँ चाल के बच्चे खेल रहे हैं तो कभी कमरे के साफ़ कोनों को निहारती। अभी उन कोनो में रेंगती चमेली को देख ही रही थी कि खिड़की के सामने से कोई गुज़रा। वो चेहरा तो नहीं देख पाई मगर पीछे से दिखने में कोई जाना पहचाना सा लगा। सरिता ने चेहरा खिड़की की सरिया से चिपका लिया पर वो ठीक से दिखाई नहीं दिया। काफी देर तक वो वहीं बैठी सोचती रही कि शायद वह आदमी पलटकर आएगा तो वह उसे देख पाएगी। मगर काफी देर हो गई। इतने में बिजली भी आ गई। खिड़कियों के पट बंद करने के लिए जैसे ही उठी वो छाया सी फिर गुज़री। इस बार सरिता ने बिना देर किए आवाज़ दी -“विकास”

आदमी पलट कर वापस आया -“अरे सोन चिरैंया! तू? कैसी है? यहाँ कैसे?”

“मैं तो यहीं रहती हूँ। तुम यहाँ कैसे?”

“एक दोस्त के यहाँ आया था।”

“पर तुम तो दुबई जाने वाले थे न”

“वो कम्बखत चार सौ बीस निकला। गाँव के बहुत लोगों के पैसे लेकर चम्पत हो गया।”

“ओह बहुत बुरा हुआ”

“तेरे साथ कौनसा बहुत अच्छा हुआ। एग्जाम हॉल में पहुंचा तो मालूम चला की तूने अपनी डोली उठवा ली”

“सब आप ही का प्रताप है महाराजा धिराज।”

“मैंने क्या किया।”

“वो कृष्ण जी वाले चने जो तुमने इस सुदामा को जबरदस्ती खिलाए थे। उसी की कीमत चुका रहीं हूँ। उस दिन चचा ने देख लिया था। बस घर में हंगामा।”

“लेकिन मेरा तुझसे क्या लेना देना। तूने समझाया नहीं।”

“जब से विभा दी भागीं हैं। हमारे घर की हर लड़की का हर ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे से लेना देना होता है।” सरिता ने खीझ में मुंह घुमा लिया।

विकास ने बात घुमाते हुए कहा “खिड़की पर ही खड़ा रखोगी। चाय नहीं पिलाओगी।”

“अंधे हो गए क्या। इत्ता बड़ा ताला नहीं दिखता क्या।” सरिता ने एक झोंक में बात खत्म तो दी मगर बात का मर्म उसी झोंक से अंदर तक सिहरा गया। सहज रहने के भरपूर प्रयास पर भी पानी की हल्की झिल्ली आँखों पर तैर गई।

“क्यों? किसने?”विकास ने भी उसी झोंक में पूछा और आँखों में ठहरे जवाब को पढ़कर चुप हो गया।

“जो लड़की लड़कों के साथ रेहड़ी पर चने खा सकती है फिर तो वो कुछ भी कर सकती है।” सिर झुकाए हुए दबी आवाज़ में बोल गई।

सरिता ने स्थिति को सहज करने के प्रयास से कहा -“शायद उन्हें पहले से ही खबर होगी कि शहर में बागड़ बिल्ला घूम रहा है।” यह कहकर सरिता ने ठहाका लगा दिया। विकास उस ठहाके में सरिता की पुरानी हंसी खोज-खोज कर रह गया। सरिता की गिरती उठती भौंहों ने विकास से अपील की कि मैंने ठहाका लागया है तुम कम से कम मुस्कुराओ तो सही। और अपराधी भाव में खड़ा विकास फीका सा मुस्कुरा भी दिया। विकास और देर सहज नहीं रह पा रहा था। वह नहीं हंस पा रहा था झठमूठ की हंसी और नहीं पहन पा रहा था बनावटी चेहरे का मुखौटा। उसने कहा “अरे देखो न सरिता। तुम्हारे साथ-साथ बात करते-करते टाइम कैसे निकल गया। पता ही नहीं चला। जिस काम से आया था वो भी भूल गया….यहाँ एक दोस्त के घर आया था। ज़रा मिल आऊं नहीं तो देर हो जाएगी। चलता हूँ।”

“हाँ ठीक है। जाओ …जाओ। मगर फिर मिलना।”

“ठीक है”

विकास चला गया और सरिता सोचती रह गई कि एक समय था विकास फालतू बकवास करने के लिए लोगों को ढूंढा करता था और मुझे चिढ़ होती थी कि कहाँ से टपक गया; मेरा समय खराब करने। आज मैं चाहती हूँ कि जितना हो सके उतनी देर तक उसके साथ फालतू ही सही मगर बातें करती रहूँ मगर आज उसके पास मेरे लिए वक्त नहीं। सरिता ने खिड़की पर फिर वही चिरपरिचित कबाड़ सजा दी ताकि लगे ही नहीं की कभी खुली ही थी।

तीन दिन तक सरिता रोज़ खिड़की के सामने बैठती और सोचती कि शायद विकास फिर मिल जाए। साथ ही डरती भी रहती थी कि कहीं रमेश फिर कोई छूटा हुआ सामान लेने वापस न आ जाए। उसे सुबह दफ़्तर भेजते समय ही पूरा एहतियात बरत लेती कि कुछ छूट न जाए। मगर विकास को क्या हुआ? वह दुबारा क्यों नहीं आया। कहीं मैं कुछ ज्यादा ही अपेक्षाऐं तो नहीं करने लगी हूँ। भला विकास को मुझसे क्या मतलब। गलती से भेंट हो गई सो हो गई। हो सकता है यह उसके दफ़्तर का समय हो ऐसे में कोइ सिर्फ गप्पे लड़ाने तो यहाँ आ नहीं सकता है।

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चौथे दिन तक उसने यह सोचना ही छोड़ दिया कि विकास आएगा। आज तो उसे घर के सारे पर्दे धोने हैं जो उसने रात में भिगोए थे। ये रोज़-रोज़ खिड़की खोल के बैठने के चक्कर में दिवाली की तैयारियों में खलल पड़ गया है। आज सरिता खिड़की पर बैठने की बजाए पर्दे धो रही है। परदों को ज़ोर-ज़ोर से पटक रही है और विकास को कोसती जा रही है। आख़िर ख़ुद को समझता क्या है? स्कूल के सबसे नालायक लड़कों में से एक था। पढ़ने में एकदम फिसड्डी। दसवीं में तो पक्का फेल हो गया होता अगर मेरे नोट्स न मिलते उसे। क्यों दिए मैंने नोट्स। हो जाने देती फेल। न वो मेरे साथ पढ़ता न हम चने खाने जाते। सरिता जितना दम लगा के ब्रश परदों पर रगड़ रही थी उतना ही दम लगा के दाँत भी पीस रही थी कि कमीने की वजह से मेरी ज़िन्दगी बर्बाद हो गई। खुद छुट्टे साँड़ की तरह घूम रहा है मगर मैं यहाँ कैद में सड़ रही हूँ। मेरी मदद करना तो दूर; पश्चाताप करना तो दूर; दो मीठे बोल बोलना तो दूर; मेरी बेबसी पर हंस रहा है। दूर खड़ा तमाशा देख रहा है। सरिता ने परदों को निचोड़ते हुए कहा- “फिर दिख जाए तो गर्दन मरोड़ दूं कमीने की।“

परदों का काम तमाम कर उसे लगा कि उसकी सारी ताकत खत्म हो गई है। गुस्से में कपड़े धोने से शरीर थका सा है और दिमाग भी गर्म लग रहा है। शायद सर पर ठंडा तेल रखने से बात बने। उसने उसी खिड़की पर रखे तेल को उठाया और जैसे ही ढक्कन खोला कि उसे ऐसा आभास भर हुआ कि किसी ने बहुत हल्के से खिड़की पर दस्तक सी दी हो। सरिता ने फटाफट खिड़की से समान हटा कर खाली किया और खोलकर देखा तो विकास खिड़की की ओर पीठ किए नीचे बच्चों का खेल देख रहा था। सरिता उसे जाने किस सुकून से ताकती रही और उसे पुकारने से भी डर रही थी कि कहीं पुकारते ही वह धुंए में गायब न हो जाए। विकास ने मुड़कर अपनी मुड़ी हुई तर्जनी खटखटाने के लिए खिड़की की ओर बढ़ाई मगर खिड़की खुली देखकर चौंक पड़ा।

“अरे कहाँ हो यार? खिड़की क्यों नहीं खोल रही थी? मैं दो घंटे से खटखटा रहा हूँ।”

“मैं कपड़े धो रही थी। और तुम खटखटा भी इतने धीरे रहे थे कि मेरी छिपकली को भी नहीं सुनाई दिया।”

“खटखटा रहा था ये काफी नहीं है। कितना डर रहा था। तुम्हें एक ही बार तो यहां देखा था। उस पर यहां के सारे चाल एक जैसे हैं। पता नहीं कौन निकल कर पीट दे। और भगवान जाने खिड़की के पीछे तुम रहोगी या तुम्हारे पति या कोई और ससुराल वाला।”

“अच्छा जी। बागड़ बिल्ले को डर भी लगता है। सुंदर सर की पिटाई की थी तब से तो मैं समझी थी कि तुम बड़े शेर बहादुर हो। किसी से नहीं डरते।”

“तुझे कैसे पता कि उस कमीने को हमने मारा था। उसके ऊपर तो हमने बोरा डाल के बंद कर दिया था कि पता ही न चले कि कौन पीट रहा है। फिर कैसे पता लगा।”

“इसमें पता क्या लगना है। सुंदर सर को पीटने वाले तुम्हारे गैंग के अलावा और कौन हो सकते थे।”

“अब ये सर सर बोलके उसे इतनी इज़्ज़त तो न दे। तू तो जानती है न कि वो एक नंबर का हरा….।”

“वो सब छोड़। ये बता तू यहां कैसे। आज फिर उस दोस्त के पास काम से आया है।”

“क्यूँ? तुझसे मिलने नहीं आ सकता क्या।”

“मुझे लगा तू आएगा ही नहीं।”

“ऐसे कैसे नहीं आता।”

सरिता ने जाने क्या सोच उसे परखने के लिए कहा। “फिर तो तू तीन दिन से यहाँ रोज़ आकर इंतज़ार करता होगा। खिड़की खटखटाता होगा और मैं खोलती नहीं होऊँगी”

“नहीं। मैं आज ही आया।”

“क्यूँ। आज ही क्यूँ। तीन दिन क्या कर रहे थे?”

“हिम्मत नहीं हो रही थी तुमसे आँख मिलाने की। हिम्मत जुटा रहा था।”

सरिता की आँखों ने और माथे पर पड़े बल ने विकास से सवाल पूछा तो जवाब में नज़रें झुक गई। मगर ये जवाब सरिता के समझ के बाहर था तो उसे सफाई देनी ही पड़ी।

“वो….इतना सबकुछ हो गया। तुम कहाँ से कहाँ पहुंच गई। क्या बनते-बनते क्या बन गई। और अब तक मुझे पता ही नहीं था कि इन सबकी एकलौती जड़ तो मैं हूँ।…..सच कहूँ तो मैँ तीन रातों से सोया ही नहीं। तुम बहुत कुछ कर सकती थी। बहुत कुछ बन सकती थी। मगर मेरी वजह से और सिर्फ मेरी वजह से तुम यहां सड़ रही हो।”

“ऐसा नहीं है। जब-जब जो-जो होना है तब-तब वो-वो होता है। तुम नहीं होते तो कोई और होता जिसके साथ में देख ली जाती। और तुम्हीं बताओ चचा जी को तभी वहां से गुज़रना था। यह सब होना तो पहले से तय था। इसमें मैं या तुम क्या कर सकते थे।”

विकास हँसा, सरिता की इस बात की उपेक्षा में हंसा।

“ये सब दिल बहलाने के लिए अच्छा है … मगर जो हुआ वो अच्छा नहीं हुआ। तुम इन सब के योग्य तो नहीं थी।”

“किसको क्या मिलना चाहिए। कौन किसके योग्य है। यह सब तय करने वाले हम-तुम कौन होते हैं। सब ऊपरवाले ने तय कर रखा है।”

“वो सब मैं नहीं जानता। बस इतना जानता हूँ कि तुझे यहां नहीं होना चाहिए।”

“अच्छा फिर कहाँ होना चाहिए।”

“कहीं भी …मगर यहाँ नहीं। मैं तुझे यहां रहने नहीं दूंगा।”

“अच्छा तो क्या करेगा….मुझे यहां से भगा ले जाएगा।”

“हाँ”

विकास ने जिस दृढ़ता से हां कहा सरिता कांप गई कि जिन बातों को खेल-खेल में कह रही थी उसे लेकर विकास गंभीर है। विकास के इरादे जानकर सरिता एकदम सकपका गई।

“तुम पागल हो”

“नहीं सच कह रहा हूँ। तुम्हें पता है अक्तूबर-नवम्बर में ही बोर्ड के फॉर्म भरे जाते हैं। यहाँ से सत्तर किलोमीटर दूर एक जगह है जहां मेरा दोस्त रहता है। उसकी पत्नी एक फैक्ट्री के लिए सिलाई करती है। तुम्हें काम पर लगवा देगी। फैक्ट्री के पास ही एक स्कूल है जहां दस-पन्द्रह दिन में बारहवीं बोर्ड के फॉर्म भर लिए जाएंगे।”

“तुम सच में पागल हो गए हो। कुछ भी बक रहे हो। अब तुम जाओ। घर जाओ और दिमाग ठंडा करो। ये क्या पगलपंथी करने को कह रहे हो।”

“नहीं….तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी।”

“मैं खिड़की बंद कर रहीं हूँ। रमेश आते ही होंगे।”

सरिता ने फटाफट खिड़की बंद की और सोचने लगी कि पता नहीं विकास खिड़की पर है या वहां से चला गया। तभी खिड़की खटखटाई और इस बार ज़ोर से खटखटाई।  मगर सरिता कांप रही थी और खिड़की नहीं खोला और जब खोला तो विकास जा चुका था।

*******

आज सरिता को नींद नहीं आ रही है। रह-रहकर सल्फेट और नाइट्रेट की गंध उसकी नाक में उठ रही है और वो बेचैन हो जा रही है। रमेश की नाक अपनी लय में बज रही है और सरिता अपनी ही लय में करवटें ले रही है जैसे किसी तबलची की ताल पर कोई कथक नृत्यांगना। करवट के साथ-साथ सरिता के विचार भी बदल रहे थे। क्या वो सच में यहां से निकल सकती है। निकलने के बाद यहाँ क्या होगा। कुछ भी हो। निकल जाने के बाद क्या फर्क पड़ता है। निकलने के बाद भी तो कुछ आसान नहीं होगा। एडमिशन के लिए पुराने स्कूल से पेपर चाहिए होंगे। टी.सी……माइग्रेशन। नहीं हो पाएगा कुछ। लेकिन अगर विकास इतना परेशान हो सकता है और इतना कुछ इंतज़ाम कर सकता है तो मैं थोड़ी जहमत नहीं उठा सकती। आखिर तीन दिन तक घर में बैठी-बैठी उसे कोस ही रही थी न, सिर्फ इसलिए कि उसके साथ गप्पे लड़ा सकूँ और वो है कि दर-दर भटक कर मेरा भविष्य सुधारने में लगा है। विकास ने कोई गलती नहीं कि फिर भी… फिर भी पश्चाताप करने में लगा है।

आज सुबह से ही सरिता खिड़की खोल कर बैठी है। कहीं नाराज़ तो नहीं हो गया। कल उसके मुँह पर खिड़की बंद कर दी और उसके खटखटाने पर भी नहीं खोली। कितना बुरा लगा होगा। कोई भी होगा तो बुरा ही मानेगा और फिर कभी पूछेगा ही नहीं। पर नहीं विकास आया और अपनी बात फिर से अड़ भी गया।

“लेकिन कैसे? टी.सी….माइग्रेशन…चाहिए होगा।“

“अपना प्रकाश याद है दि हैंडराइटिंग एक्स्पर्ट।“

“वो मोटा जो तेरे साथ रहता था।“

“हां। वो अभी स्कूल में ही है, पास नहीं हुआ। सारे पेपर का इंतज़ाम कर देगा।“

“तूने उससे भी बात कर ली?”

“हां तो क्या। लड़की भगाना आसान काम है क्या। वो भी किसी की बीवी।“

“मजाक मत कर विकास। मुझे डर लग रहा है।“

“कमाल है सरिता। तू कब से डरने लगी। याद है स्कूल में, किसी लड़की ने कमीने सुंदर की बदतमीजियों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई थी। केवल तू प्रिंसिपल के पास गई थी। वरना तो किसी को पता भी नहीं चलता। तभी तो क्लास के सभी लड़कों का खून खौलने लगा और हमने वो कुटाई की कि कभी किसी लड़की की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखेगा। बोरे में बंद नहीं होता तो उसकी आँख फोड़ देता।“ विकास के नथुने फ़ड़क रहे थे और गालियों पर गालियां दिए जा रहा था। पर धीरे से उसके गुस्से की दिशा रमेश की तरफ मुड़ी।

“अगर तू यहाँ से नहीं चलेगी तो तेरे पति परमेश्वर की मैं उस कमीने से भी ज़्यादा आरती उतारूँगा।“

“घर वालों को पता लगेगा तो?”

“तू पागल है क्या। जिन्होंने आज तक तेरी परवाह नहीं की। तेरी जिन्दगी तक बर्बाद करने से नहीं चूके तू उनकी सोच रही है।“

“लेकिन मैं तुझ पर बोझ नहीं बनना चाहती।“

इस बार विकास खुलकर हंसा और हंसता ही रहा।

“मुझे अपनी कमर तुड़वानी है जो मैं तेरा बोझ उठाऊँगा। अरे पगली तू खुद अपना बोझ उठाने के काबिल है तो मैं क्यूँ उठाऊँगा। और वैसे भी मैं तीन दिन बाद दुबई जा रहा हूँ। मैं तो यही सोच रहा था कि तीन दिन तक अगर तूने खिडकी नहीं खोली या मेरी बात नहीं मानी तो तू बोझ की तरह हर जगह मेरे दिमाग पर लदी रहती। अब तू मान जाए तो मैं खाली दिल और दिमाग ले कर यहाँ से निकल सकूँगा।“

सरिता ने एक साबुन विकास की ओर बढ़ा दिया।

“ये क्या है?”

“पलट कर देख”

“अरे ये तो चाभी की छाप है।“

“हूँ”। सरिता मुस्कुरा दी।

“चल फिर पंख पसार सोन चिरैंया, मैं कुछ ही घंटे में आता हूँ।“

सरिता घर समेटने में लग गई। सोना किचन की खिड़की के नीचे चिल्ला रही थी। क्या जानवरों के पास दूसरों के भाव पढ़ लेने की शक्ति होती है। उधर चमेली भी जैसे विदाई गीत गा रही थी। चिक-चिक-चिक-चिक से सारा घर भर रखा था। इन्हीं आवाज़ों  के बीच ताला खुलने की आवाज़ भी आई। और सोन चिरैंया उड़ गई। पिंजरा खाली रह गया।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]