संस्मरण

मेरी कहानी 101

रसोई घर में बैठे बैठे तीनों भाई बड़े मज़े से साग (जिस के ऊपर माँ अक्सर घर का माखन भी रख देती थी) के साथ मक्की की रोटीओं का मज़ा ले रहे थे और साथ ही दुसरे दिन का प्लैन भी बना रहे थे. सर्दिओं के दिन थे और चूल्हे की आग का मज़ा भी ले रहे थे। बच्चों ने भी वहीँ रोटी खा ली थी, और सभी खा कर बड़े कमरे में चले गए थे जिस में अंगीठी में कोएले जल रहे थे। हम तीनों भाई देर रात तक रसोई में ही बैठे बैठे बातें करते रहे. आज तो रसोई गैस से ही खाना बनाया जाता है, इस लिए अब हाथ ताप्ने का वोह मज़ा तो आ नहीं सकता लेकिन उस समय घर का बालणं (लकड़ीआं आदिक) होता था जिस की कोई कमी नहीं थी और चूल्हे के नज़दीक बैठने का अपना ही एक मज़ा होता था. देर रात तक बैठने के बाद हम सो गए। सुबह उठ कर हर काम से फारग हो कर और परौठे खा कर इंजिन को ट्यूबवैल पर ले जाने का प्रोग्राम बनाने लगे। निर्मल एक शख्स जिसका नाम मुझे याद नहीं के घर गया जिनसे बैल लेने थे। कुछ ही देर बाद निर्मल दो बैल ले आया। निर्मल ने ही दो मोटे रस्से इंजिन के आगे बाँध दिए। दोनों बैलों के गले में लकड़ी का एक फ्रेम जिस को पंजाली कहते थे से बाँध दिए गए। इंजिन के दोनों तरफ के रस्सों को इस पंजाली के बीच में बाँध दिया और बैलों को चलना शुरू कर दिया। इंजिन बहुत भारी था और इस के छोटे छोटे पहिये कुछ कुछ ज़मीन को काट रहे थे। क्योंकि सड़क साथ ही थी, इसलिए जल्दी ही सड़क पर चलने लगे। बैलों का बहुत जोर लग रहा था, इसलिए बहुत धीरे धीरे चल रहे थे। खेत मुश्किल से दो सौ गज़ के फासले पर ही थे, इसलिए सड़क पर जाते कोई ख़ास तकलीफ नहीं हुई लेकिन यों ही सड़क से उत्तर कर इंजिन को खेत में लाये तो पहिये खेत में धंसने लगे। इस खेत में ज़्यादा से ज़्यादा हमने पचीस तीस गज़ ही जाना था लेकिन बैलों का बहुत जोर लग रहा था और एक बैल की एक टांग पर इंजिन लग कर छोटा सा ज़ख़्म भी हो गिया। खेत में तकरीबन आधा घंटा लग गिया था लेकिन हम कामयाब हो गए और इंजिन को ठीक जगह पर ले आये। इंजिन को लैवल किया और वील पर बैल्ट रखके उस का दूसरा हिस्सा ट्यूबवैल पंप के वील पर चढ़ा दिया। इंजिन के आगे हैंडल लगाया और जोर जोर से इंजिन को घुमाया, धक धक धक होने लगी और पाइप से पानी आने लगा। हमारा मन खुश हो गिया।

निर्मल बैलों को उस शख्स के घर छोड़ने चला गिया और मैं फावड़ा ले कर खेतों की और जाने लगा और देखने लगा कि कहीं पानी लीक ना हो। यहीं कहीं मैं कोई लीक हो जाने वाली जगह को देखता उसको फावड़े से बंद कर देता। जब निर्मल बैल छोड़ कर वापस आया तो मैंने कहा, “निर्मल, मुझे एक चिंता हो रही है कि यह ट्यूबवैल निचली जगह पर है जब कि हमारे खेत कुछ ऊंचाई पर हैं, पानी हमारे खेतों में पहुंचेगा भी या नहीं ?”. नहीं नहीं कोई ख़ास फरक नहीं लगता, निर्मल बोला। दरअसल हमारे खेत सड़क के एक ओर थे और ट्यूबवैल सड़क की दुसरी ओर था। पानी जाने के लिए सड़क के नीचे से एक पाइप डाला हुआ था। मैं और बड़े भाई अजीत सिंह ट्यूबवैल के नज़दीक बैठ कर रेडिओ पे गाने सुनने लगे और निर्मल फावड़ा ले कर हमारे खेतों की ओर चले गिया ताकि खेत की एक एक क्यारी को पानी देता रहे। हम दोनों भाई कभी ताश खेलने लगते कभी बातें करने लगते और कभी रेडिओ सुनने लगते। वक्त का पता ही नहीं चला और माँ हमारे लिए दुपहर का खाना ले कर आ गई। दोनों भाईओं ने खाना खाया और फिर माँ निर्मल को खाना देने चल पड़ी। शायद दो तीन वज गए होंगे, मैंने बड़े भाई को बोला कि मैं ज़रा देख आऊं कि कितने खेत पानी से भर गए थे। जब मैं निर्मल के पास पहुंचा तो देखा, निर्मल उदास था और कहने लगा, “एक घंटा पहले ही पानी यहां पहुंचा है और वोह भी अच्छी तरह आता नहीं, सिर्फ एक किआरा ही भरा है”. देख सुनकर मैं भी उदास हो गिया और कहा कि मुझे तो पहले ही शुबाह था कि यह साइड ऊंची थी। कुछ देर बाद बड़ा भाई भी आ गिया और हम बातें करने लगे कि अब किया कीआ जाए। सोच सोच कर निर्मल बोला कि अब हमारे पास और कोई चारा तो था नहीं, इस लिए जितना भी हो सके हमें रोज़ रोज़ आना पड़ेगा। काम तो एक दिन का था लेकिन अब शायद हफ्ता लगा जाए लेकिन काम तो करना ही था और डीज़ल और ले आएंगे। तीनों भाई फिर ट्यूबवैल की और जाने लगे और देखा कि पानी उछल उछल कर लोगों के खेत ही भर रहा था। ठंड बढ़ने लगी थी और अँधेरा होने को था क्योंकि सर्दिओं के दिन छोटे होते हैं। कुछ देर और बैठ कर हम ने इंजिन बंद कर दिया और घर की और जाने लगे।

घर पहुंचे तो दादा जी पूछने लगे, “काम हो गिया ?”. हम तीनों हंस पड़े, “कुछ अभी रहता है” कहकर हम भीतर चले गए। बातें तो हम कर रहे थे लेकिन हम को पता नहीं लगता था कि हंसें या रोएँ। कुछ देर बाद रोटी की आवाज़ आने लगी और हम फिर रसोई में बैठ कर बातें करने लगे। इस रात ठंड बहुत ज़्यादा थी और पाला बहुत पढ़ रहा था, इस लिए हम जल्दी ही उठकर भीतर आ गए। आज तो लोग देर रात तक टीवी देखते रहते हैं लेकिन उस वक्त अभी भी लोग रात का खाना खा कर जल्दी ही रजाईओं में घुस जाते थे। सुबह उठकर, खाना खा कर हम फिर सीधे ट्यूबवैल की ओर चले गए। चारों तरफ घास पर सफेद चादर सी दीख रही थी क्योंकि पाला इतना था कि पानी जम गिया था। इंजिन के आगे हैंडल फंसाया और घुमाने लगे लेकिन स्टार्ट नहीं हो रहा था। काफी देर के बाद इंजिन स्टार्ट हो गिया लेकिन दो मिनट बाद ही बंद हो गिया। कई दफा स्टार्ट किया लेकिन हर दफा बंद हो जाता। निर्मल को याद आ गिया, उस ने डीज़ल वाला कंटेनर देखा तो डीज़ल जम कर बहुत गाहड़ा हो गिया था। इस डीज़ल के कंटेनर को इंजिन से उतार लिया गिया। कुछ बालणं इकठा करके आग जलाई और उस के ऊपर कुछ दूरी पर कंटेनर को रखा, धीरे धीरे डीज़ल पतला हो गिया। यह खेल खतरनाक भी हो सकता था लेकिन निर्मल को इसका आडीआ था। जब डीज़ल के कंटेनर को ऊपर रखा और इंजिन स्टार्ट किया तो इंजिन चल पड़ा। पानी आने लगा। घर से कुछ पुराने कपडे ले आये और कंटेनर के इर्द गिर्द लिपट दिया ताकि डीज़ल गर्म रहे जमे नहीं। फिर से काम शुरू हो गिया। थोह्ड़ा थोह्ड़ा काम रोज़ होने लगा।

एक दिन वोही मकैनिक फिर आ गिया और आते ही बोला, ” मुझे एक आईडीआ आया है, कि इसी पाइप में छोटे साइज़ का पाइप लोर कर दिया जाए, इस से यहां भी लीक है वोह बंद हो जाएगा, पानी कुछ कम आएगा लेकिन इतना ज़्यादा फरक नहीं पड़ेगा”. हम ने उस को हाँ बोल दिया और दूसरे दिन ही जिस साइज़ के पाइप उसने कहे थे, फगवाड़े से हम एक रेहड़े पर रख कर ले आये। मकैनिक भी आ गिया और काम शुरू कर दिया। एक के बाद एक पाइप एक दूसरे से जोड़ जोड़ कर वोह पहले पाइप में डालने लगा। जब सारा पाइप नीचे तक चले गिया तो उस ने सविच ऑन कर दिया। सविच ऑन होते ही पानी की तेज़ धार आने लगी, हमारे चेहरे खिल गए। देखने में तो लगता था कि पानी पहले जैसा ही आ रहा था क्योंकि अब पाइप छोटा होने के कारण बहुत प्रेशर से आ रहा था। मकैनिक भी अपनी कामयाबी पर खुश था और बोला, “भाई साहब अब तो कुछ खाने पीने का प्रोग्राम हो जाए। निर्मल समझ गिया था कि वोह किया चाहता था। निर्मल किसी से देसी शराब की बोतल ले आया। एक एक पैग हम ने भी लिया लेकिन मकैनिक को खुश कर दिया। घर आ गए थे। माँ ने अंडों की भुर्जी बना ली थी क्योंकि घर में ही हमारी कुछ मुरगीआं थीं जो निर्मल ने रखी हुई थीं। मकैनिक को रोटी खिलाई और जितने पैसे उस ने बोले हमने दे दिए। वोह भी ख़ुशी ख़ुशी साइकल ले कर अपने गाँव नंगल सपरोड़ को चले गिया।

अब ट्यूबवैल ठीक हो गिया था और एक दिन में ही सभी खेत पानी से भर गए। कुछ दिन बाद हम अपना इंजिन भी बैलों से घर ले आये। इस के बाद इंजिन कभी इस्तेमाल नहीं हुआ और बाद में किसी को बेच दिया गिया था। अब हम बेफिक्र हो गए थे। अब मैंने रीटा पिंकी और संदीप की ओर भी धियान देना शुरू कर दिया। संदीप तो अभी एक साल का ही था और कुलवंत उस को कपडे की नापी लगाती थी, जब भी उस की नापी पिछाब बगैरा से खराब होती कुलवंत संदीप के बॉटम को साफ़ करके नई नापी लगा देती। एक दिन माँ कुलवंत को कहने लगी, “क्यों मुंडे को इस मुसीबत में डालती हो, हर दम बांध के रखती हो, क्यों नहीं उस को खुला रहने देती, ज़रा उस को हवा लगने दो “. इस के बाद कुलवंत ने भी कभी लंगोट नहीं बाँधा। हमारे घर के एक तरफ गाये भैंसों के लिए जगह थी। उस में एक मट्टी का बड़ा सा ढेर था। संदीप दिन को इस मट्टी के ढेर से बहुत खेलता। इंगलैंड में उस को कुछ सांस की दिकत थी। रोज़ रोज़ मट्टी में खेलने से वोह बिलकुल ठीक हो गिया और उस का वज़न भी कम हो गिया क्योंकि इंगलैंड में वोह ओवरवेट था। संदीप को मट्टी से बहुत लगाव था और ऐसी आज़ादी इंगलैंड में बिलकुल नहीं थी।

इंगलैंड में तो मौसम की वजह से हर वक्त अंदर ही रहना पड़ता था। पिंकी रीटा तो इतनी खुश थी कि उन दोनों को कभी कोई ले जाता, कभी कोई। गूंगे उन को अपने खेतों में ले जाते और वोह एक एक गन्ना पकडे हुए घर की ओर आती और हम उन को देख कर हँसते। कभी वोह चने या मक्की के दाने ले कर भड्भून्जे की भट्टी को चले जाती और जब दाने भून जाते तो दोनों घर की ओर चली आती। बहुत औरतें उन को इंग्लिश बोलने को कहतीं, और जब वोह बोलतीं तो वोह बहुत खुश होतीं और हंसती। आज तो ऐसी कोई बात नहीं है लेकिन उस समय इंगलैंड में जनम लेने वाले बच्चे बहुत कम होते थे और इसी लिए गाँव के लोग उनको अंग्रेजी बोलते देख कर बहुत हैरान और खुश होते थे।

बहादर के भाई लड्डे की कुछ देर पहले ही नई नई शादी हुई थी। लड्डे की पत्नी गुरमीत पिंकी रीटा को अपने घर ले जाती, उनका मेक अप करती और माथे पर बिंदीआं लगा देती। खूबसूरत मेक अप्प में जब दोनों बहने कम्बोज मोहल्ले में घूमतीं तो मोहल्ले के बच्चे उन के आगे पीछे चलने लगते। मेरा खियाल है हमारे बच्चों की यह बैस्ट हॉलिडे थी और पिंकी रीटा को यह सब अभी तक याद है। दादा जी के पास तो वोह हर दम आती जाती रहती और दादा जी हमारे पिता का दुःख भूल कर बच्चों में खो गए थे।

चलता ….

9 thoughts on “मेरी कहानी 101

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके जीवन की सच्ची कहानी पढ़कर प्रसन्नता हुई। मेरी माता जी भी देहरादून के निकट २० किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक गाव डोईवाला के किसान की बेटी थी। मेरे मामा जी १०० वर्ष के हैं। कल ४ फरवरी और आज मैं गाँव में अपने मौसेरे भतीजे की शादी में गया था। मामा जी व मामीजी से भी मिला। मामा जी की उम्र पूछी तो उन्होंने १०० वर्ष पूरे होने की बात कही। बचपन में हमने भी गाँव के खेतों में खेल कूद किया है। खेतों की जुताई व बुआई, निराई तथा गुड़ाई भी देखी है और बैलगाड़ी में भी खूब बैठें हैं। मामा जी १०० वर्ष की आयु में आज भी खेती के काम करते हैं। आज अपने घर से पैदल हमारे साथ रिसेप्शन स्थान तक स्वयं पैदल चलकर गए। कमर जुकी हुई है परन्तु अपने सारे काम कर लेते हैं। आपका वर्णन पढ़कर मुझे भी अपने बचपन और कल व आज के डोईवाला गाँव में बिताया समय याद आ गया। आपने आज की क़िस्त में जो लिखा उसका आनंद ले चुके हैं। आगे की बातें जानने की इच्छा है। सादर।

  • मनजीत कौर

    आदरणीय भाई साहब हमेशा की तरह आज की किश्त भी लाजवाब है आप ने पंजाब की याद दिल दी, हम भी जब अपने नानके गाँव जाते थे तो बहुत ख़ुशी मिलती थी इसी तरह नानी जी और माँ चूल्हे पर साग और मकई की रोटी बनाते और हम सभी बच्चे इर्द गिर्द बैठे उनकी ज्ञान भरी बाते सुनते, सर्द दिनों में आग सेकते हुए रोटी खाते बहुत अच्छा लगता । जो मजा उन दिनों में था वो अब कहाँ । सुन्दर किश्त के लिए आप का धन्यवाद

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मंजीत , वोह दिन वाकई बहुत अछे थे ,सादगी थी लेकिन कोई बहुत मजेदार दिन थे .खेतों में जाना ,हर मौसम में हरिआली ,कभी गन्ने कभी भुठे जिस को पंजाब में छली कहते हैं , है तो अब भी सभी चीज़ें लेकिन वोह सादगी कहाँ ?

  • विजय कुमार सिंघल

    भाईसाहब, खेतों में पानी लगाने की आपकी मेहनत के बारे में पढकर अच्छा सगा। हमारे खेत में भी ट्यूब वैल रास्ते के एक ओर तथा खेत दूसरी ओर थे। इसलिए हमारे पिताजी ने रास्ते के नीचे से पक्की नाली पाइप डालकर बनवा दी थी जिससे इस समस्या कासमाधान हो गया था।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , इसी तरह सड़क के नीचे से पानी जाता था .हमारा एक खेत ही दुसरी ओर था ,सारी ज़मीन एक ओर ही थी .ऐसी नौबत कभी आई ही नहीं थी कि हमें उधर से पानी लेना पड़े ,बस वोह दिन ही थे और बीत गए .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, छोटी-छोटी डिटेल को भी आप इतना पैनापन दे देते हैं, कि उस समय का माहौल हमारे सामने जीवंत हो उठता है. अति अद्भुत.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन, आप का जयविजय पर आना बहुत अच्छा लग रहा है .दरअसल मुझे तब तक तसल्ली नहीं होती जब तक हर बात को लिख ना दूँ और बहुत कुछ मैंने आप से ही सीखा है .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, हम तो इसे बस आप की ज़र्रानवाज़ी कहेंगे.

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, हम तो इसे बस आप की ज़र्रानवाज़ी कहेंगे.

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