कविता : तुहिन के तीर बिफर
तुहिन* के तीर बिफर, धरा पर जाते बिखर;
भूमि तल जाता निखर, प्राण मन होते भास्वर !
पुष्प वत आते कभी, गगन में छा के कभी;
मोहते नयना जभी, मोह छुड़वाते तभी !
धवल छवि धर के ज़मीं, ध्यान में लेती गुणी;
कणी को करती मणि, ऋणी हो जाते धनी !
सहजता उर में भरे, सबलता सुर में धारे;
करे वह वारे न्यारे, सहारे जाती तारे !
समाधि जाती सिहर, पैठ सृष्टि के गह्वर;
‘मधु’ जब पाते महर, चूमते हिम के शिखर !
* तुहिन = हिम स्फटिक = Crystals of snow
— गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा