इतिहास

वो याद … जब जग जीतने वाला खुद हार गया

Jagjit-Singhस्वर्ण भस्म के खाने वाले इसी घाट पर आये। दाने बीन चबाने वाले ……..।
आज एक याद जेहन में ताजा हो गयी उस याद का नाम है जगजीत सिंह जी।

आठ फरवरी 1941 को श्री गंगानगर (राजस्थान) में अमर सिंह-बच्चन कौर के यहाॅं जन्मे श्री जगमोहन। इनके पिताजी पंजाब के दल्ला गाॅंव के निवासी थे। पिता ने पंडित छुन्नुलाल शर्मा से शिक्षा लेने भेजा फिर छः साल उस्ताद जमाल खाॅं से भी तालिम ली। कालेज के दिनों में सिंह जी लगभग तीन हजार की भीड़ के सामने गा रहे थे अचानक बिजली चली गयी, साउंड सिस्टम बैटरी के जरिये चालु हुआ सिंह जी गाते रहे और क्या मजाल के अंधेरे के बावजुद भी कोई वहां से उठकर गया हो। गजल के नाम को जिंदा रखने में सबसे अग्रणीय नाम है जगजीत जी।

मुझे लगता है कि मिर्जा गालिब जी ने उन्हे कह रखा था कि नये दौर में भी गजल को मरने मत देना। वह सारी उम्र इसी काम में लगे रहे। लेकिन 28 जुलाई 1990 को अपने बेटे विवके की मौत का दुःख बर्दास्त न कर सके और बोले मुझे गायकी में डूबना होगा। फिर गोद ली हुई बेटी …..और फिर खुद। अपने बेटे की याद में लिखी गजल ‘‘चिट्ठी ना कोई संदेश…..।’’ जो उनके हर कार्यक्रम की आखरी प्रस्तुती होती थी। मुझे अच्छी तरह याद है वो पल सिंह जी ग्वालियर के केप्टन रूपसिंह स्टेडियम में अपनी गजलों में लीन थे। लेकिन वेटरों की आवाजाही और आयोजकों की खुसफुसाहट वे बर्दाशत न कर सके और गजल बीच में ही रोककर झल्लाये- गजल का सम्मान करना सिखिए। उनके इन्ही शब्दों से कार्यक्रम में बिल्कुल शांति हो गयी, लेकिन ध्यान भंग हो जाने के कारण ज्यादा देर तक कार्यक्रम नहीं चला और चिट्ठी न कोई सदेश के साथ उन्होने कार्यक्रम समाप्त कर दिया।

वे गजल का हमेशा सम्मान करते एवं गजल का सम्मान चाहतें थे। उनकी जिंदगी नज्मो, गीतों, गजलों एवं बंदिशों को आवज देने वाली उस रात की तरह थी जिसका सूरज रोज गुम होता रहा। जिसे अपना चाॅंद रोज बेलना पड़ा। अपनी आवाज और हुनर से उन्होने दुनिया भर में सुकुन बाॅंटा लेकिन उनके लिए यह सब कुछ कड़वा ही रहा – चाहे वो चाॅंद सूरज की सुदरता हो, सुबह की उगती हुई किरणों का संगीत हो, अंधेरी रातों की खामोशी हो, पत्तो से छनती हुई मेह की बुॅदे हो, चाहे घास पर फिसलती हुइ ओस हो। गायन की सभी शैलियों में उनक महारथ और गायकी की उनकी गंभीरता ही थी जिसने हर दौर में उन्हे शिखर पर ही बनाये रखा, एकदम स्थिर। चट्टान की तरह, जो कभी न हिले, न डुले। चट्टान इसलिए की उन्होने ही गजल को लोकप्रियता दी- बच्चों में, वरिष्ठों में, यूवाओ मे एक साथ। किसी ने उनकी गजल के बहाने अपना बचपन याद किया तो किसी ने गजल को अपना प्रोफेशन बनाया।

यह उनकी आवाज का ही वैभव है जो एक साथ दर्द, प्यार, आशा और प्रतिक्षा की दृढ दीवारें आपके भीतर खडी करता है। अगर महानतम प्रेमी मजनु भी अपनी मोहब्बत को गाकर व्यक्त करता तो निश्चित ही वह आवाज सिंह जी की आवाज होती। कभी वो खुशगवार क्षण हुआ करते थे जब जगजीत जी अपनी पत्नी चित्रा, बेटी मोनिका व बेटे विवेक के साथ हुआ करते थे। लेकिन बेटे विवेक के बाद, गोद ली हुई बेटी और फिर खुद। 30 सितम्बर 2011 को जगजीत सिंह को ब्रेन हेमरेज के कारण मुम्बई के लीलावती अस्तपताल में भर्ती कराया गया।

इस बात को निश्चित ही कहा जा सकता है कि उन्हे जानने सुनने वालों को उस रात नींद नहीं आयी होगी जिस रात वो हमारे बीच नहीं रहे थे। आखिर उन आॅंखों में नींद समाती भी कैसे, उन्मे तो आॅंसू लबालब थे। बड़ा अफसोस हुआ- जब 10 अक्टूबर 2011 को सुबह 8:10 बजे सत्तर वर्षीय गजल सम्राट जगजीत की आवाज हमेशा-हमेशा के लिए खामोश हो गयी। उस दिन अफसोस तो देश विदेश के उन करोड़ो लोगों को भी हुआ होगा जिन्होने जगजीत के न रहने की खबर सुनी होगी। उनका जाना गजल की रूहानियत का गुम होना हेै। गजल की दुनिया में उनका कोई सानी ही नहीं था। अब शायद गजल सम्राट की जगह हमेशा-हमेशा के लिए रिक्त है!
इन्ही शब्दों से सिंह जी को विनम्र श्रद्धांजली-
नज्मों, गीतों, बंदिशों, गजलों का सरताज।
जग जीत कर चला गया, बिना किये आवाज।।

दीपेन्द्र सिंह भदौरिया "देव"

दीपेन्द्र सिंह भदौरिया "देव" जन्म: 1993.. पता: भिण्ड (मध्य प्रदेश) शिक्षा: B.Sc.. M.A (हिन्दी).... जारी,..। लेखन: पहली रचना (जो व्यंग्य रचना थी) 03 जून 2012 को इटावा (उप्र) से प्रकाशित दैनिक हिन्दी समाचार पत्र "दैनिक देशधर्म" में प्रकाशित हुई। उसके बाद दैनिक देशधर्म, अंतरराष्ट्रीय मासिक ई-पत्रिका "जनकृति", जयपुर से प्रकाशित समाचार पत्र "नेशनल दुनिया", दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी मासिक पत्रिका "परिंदे", भोपाल से प्रकाशित "साप्ताहिक अफसोस ", आदि जगह रचनायें एवं लेख लेख प्रकाशित हुए ।