कविता- एक फौजी की बिरहन
कितनी अनकही भावनायें
कितने अनछुये जज्बात
यूंही कोरे पडे है….
आँखों के किनारे थोडे गीले है
बातें शुष्क…खाली दामन
मेरे आस तोडने पर अडे है..
आंगन मे महकते गेंदे के फुल
बसंती मौसम तुम बिन
फिर यूंही बीत जायेंगे…
तुम सियाचिन के बर्फिले पहाडो पर
यहाँ गुलाबो के इस मौसम मे अकेली
‘ एक फौजी की बिरहन ‘ मै
ये इन्तजार खत्म होने का
इन्तजार कर रही हुँ
सुनो, तुम आना जरूर…..
— साधना सिंह
अच्छी कविता ! सियाचिन से बहुत से तो लौट ही नहीं पाते. बर्फ में ही उनकी समाधि बन जाती है.