कविता

कविता- एक फौजी की बिरहन

कितनी अनकही भावनायें
कितने अनछुये जज्बात
यूंही कोरे पडे है….
आँखों के किनारे थोडे गीले है
बातें शुष्क…खाली दामन
मेरे आस तोडने पर अडे है..
आंगन मे महकते गेंदे के फुल
बसंती मौसम तुम बिन
फिर यूंही बीत जायेंगे…
तुम सियाचिन के बर्फिले पहाडो पर
यहाँ  गुलाबो के इस मौसम मे  अकेली
‘ एक फौजी की बिरहन ‘ मै
ये इन्तजार खत्म होने का
इन्तजार कर रही हुँ
सुनो, तुम आना जरूर…..

— साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)

One thought on “कविता- एक फौजी की बिरहन

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता ! सियाचिन से बहुत से तो लौट ही नहीं पाते. बर्फ में ही उनकी समाधि बन जाती है.

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