चिलक
“ये कैसा संकल्प ले रहे हो रघुवीर बेटा ! गंगाजल अंजुली में भर इस तरह संकल्प का मतलब भी पता !!”
“पिताजी, आप अन्दर ही अंदर घुलते जा रहे हैं। कितनी व्याधियों ने आपको घेर लिया हैं। नाती-पोतों से भरा घर, फिर भी मुस्कराहट आपके चेहरे पर मैंने आज तक ना देखी।”
“बेटा मैं भूलना चाहता हूँ पर ये समाज मेरे नासूर को कुरेदता रहता है। अपने नन्हें-मुन्हें बच्चों को यूँ ही बिलखता छोड़ कोई माँ कैसे जा सकती है, यह कैसे-क्यों का प्रश्न मुझे अपने जख्म भरने नहीं देता। फिर भी बेटा मैंने संतोष कर लिया। तीस सालों में परिजनों के कटाक्ष को भी दिल में दफ़न करना सीख गया। हो सकता हैं उसका प्यार मेरे प्यार से ज्यादा हो इस लिए वो मेरा साथ छोड़ चली गयीं हो।”
“इसी समाज के कटाक्ष की ज्वाला में जल के तो मैं आज संकल्प ले रहा हूँ। मैं उनका मस्तक आपके चरणों में ले आके रख दूँगा पिता जी ‘परशुराम’ की तरह!”
“बेटा गिरा दो अंजुली का जल। तुम परशुराम भले बन जाओ पर मैं जन्मदग्नी नहीं बन सकता।”
— सविता मिश्रा
अच्छी लघुकथा बहिन जी !
प्रिय सखी सविता जी, सार्थक अत्यंत सुंदर संदेश के लिए शुक्रिया.