लेख

सड़क और पगडंडी

सड़क और पगडंडी – एक नगर की ओर जाता है और दूसरी गाँव की ओर। गाँव और नगर के बीच रास्ते तो कई हैं लेकिन समानताऐं नहीं हैं। पिछले कई दशकों से इन्हीं रास्तों से लोग ग्रामीण जीवन से नगर की चकाचौंध की ओर भाग रहे हैं। लेकिन अब नगरी जीवन अपने आकर्षक चोले को फेंक विकराल रुप में अपनी विराट समस्याओं के साथ सामने आ गया है।

नगरों ने अपनी तेज़ रफ्तार में जीवन को पीछे छोड़ दिया है। उसकी रफ्त़ार के नीचे अक्सर कई जिन्दगियां कुचली जाती हैं, इस रफ्तार के आगे जिन्दगी की कोई क़ीमत नहीं है, जिन्दगी रहे न रहे, इसकी रफ्तार कम नहीं होनी चाहिए। इस रफ्त़ार ने जीवन को इतना तेज़ बना दिया है कि जीने के लिए ही समय नहीं है। हम कब पैदा होते हैं और कब मर जाते हैं, पता ही नहीं चलता। हाँ, नगरों ने हमें आधुनिकता के सारे साधन दिए हैं। ये साधन हमारे लिए जीना आसान बनाते हैं। परंतु ध्यान से देखा जाए तो जीवन आज अधिक दुष्कर हो गया है। जिन साधनों से हम अपना काम आसान करते हैं वे ही हमारा सारा समय खा जाते हैं, कभी-कभी तो घातक भी साबित होते हैं, जैसे वाहन, लिफ्ट, गैस का सिलेंडर या साधारण सा एक प्रेशर कुकर। गाँवों में साधन कम हैं लेकिन जीवन भी उतना ही सादा-सरल और ठहराव से भरा है।

नगरों के ये साधन हमें आत्मनिर्भर बनाते हैं। मनोरंजन के लिए हमें साथी की आवश्यकता नहीं पड़ती- टी वी एवं इंटरनेट है न! कहीं भी जाना है तो गाडी में बैठे और चल दिए, किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। पर सोचने वाली बात यह है कि क्या वाकई हम आत्मनिर्भर हैं? ध्यान से देखा जाए तो हम दूसरों पर पहले से भी ज्यादा निर्भर होते जा रहे हैं। अगर घर में पानी नहीं आ रहा, कोई पाइप टूट गया हो, गाडी खराब हो गई है, क्रेडिट कार्ड गुम हो गया हो, मार्केट बंद हो और ऐसी अनेक स्थितियां हैं जो हमें यह आभास दिलाती हैं कि हम दूसरों पर दिन-प्रतिदिन कितना निर्भर होते जा रहे हैं। यह निर्भरता भी ऐसी है कि हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते, जैसे की दूध के पैकटों में मिलावट हो, तब भी हमें वही दूध लेना है, सब्जियाँ ज़हरीली हों तब भी वही खाना है, रेस्टोरेंट का खाना कितनी ही गंदगी से बनाया गया हो उसी से काम चलाना है, बस की सीटें कैसी भी हों उसी पर बैठना है और तो और अपको पसंद हो या न हो होटलों में अगर वेस्टर्न कोमोड लगा है तो भी उसी पर बैठना है, आखिर बैठेंगे नहीं तो करेंगे क्या?

यह निर्भरता का जाल है जो प्रतिदिन गहरा होता जा रहा है जिसमें नगरवासी फँसता चला जा रहा है, फँसता चला जा रहा है। जहाँ एक ओर खाने का सामान उपलब्ध नहीं वहाँ दूसरी ओर सरकारी गोदामों में टनों खाद्य सामाग्री सड़ जाती है। एक और रहने को छत नहीं तो दूसरी ओर कई गैरकानूनी मक़ान ध्वस्त कर दिए जाते हैं। नगर के किसी हिस्से में कुव्यवस्था से नल में पानी नहीं आ रहा है और दूसरे हिस्से में पंप लगाकर भूमिगत गैराजों से बारिश का पानी निकाला जा रहा है। यह हुई नगरीय व्यवस्था।

गांव कहीं ज्यादा सक्षम एवं आत्मनिर्भर हैं। गाँव अपनी आवश्यकता अनुसार ही उत्पादन करता है और जितना उत्पादन होता है वह वहीं खप भी जाता है और तो और नगरों की आवश्यकता भी पूरी करता है।

गाँव में हम संध्या समय एक मंडली बनाकर पीपल के नीचे बैठ, गप्पे हाँककर अपनी सारी थकान मिटा सकते हैं। लेकिन शहरों में, मण्डली बनाना तो दूर, अपने बगल वाले फ्लैट में कौन रहता है इसका भी अंदाज़ा नहीं होता, कई बार तो पड़ोसी की मौत का आभास भी तभी होता है जब उसकी लाश की सड़न से हमारा जीना मुश्किल हो जाए और हम पुलिस को ख़बर करें। जिसे हम पार्टी कहकर मन बहलाव करने की कोशिश करते हैं वह हमारी थकान दूर करने की बजाय हमें और थका देती है। इन सभी पार्टियों के पीछे कोई न कोई मक़सद होता है -: बॉस को खुश करना, कोई व्यापार की डील, किसी काम के लिए अधिक से अधिक लोगों से संपर्क(contacts) बढ़ाना, इत्यादि। अक़सर हमें वहाँ इसलिए जाना पड़ता है ताकि मेज़बान बुरा न मान जाए। यह पार्टियाँ रोज़ नहीं होती लेकिन गाँवों में तो रोज़ सखी-सहेलियाँ, वृद्धों का हुक्कापान, आदमियों की जमात और बच्चों का खेल देखने को मिलता है।

नगरों में स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए हज़ारों साधन मौजूद हैं जबकि गाँवों में तो वैद्य तक पँहुँचते-पँहुँचते रोगी समाप्त हो जाता है। हमारे यहाँ बडे-बड़े अस्पताल हैं, दवाखाने हैं, जिम की व्यवस्था है, टी.वी और इंटरनेट पर अपने आप को स्वस्थ रखने के लिए हज़ारों नुस्खे दिन-रात मौजूद रहते हैं। फिर भी देखा जाए तो ग्रामवासी अधिक स्वस्थ्य एवं चिरायु होता है जबकि नगरवासी तनाव से ग्रस्त एवं हज़ारों रोगों से पीड़ित रहता है, वह प्रदूषित वायु, जल, भोजन एवं मानसिक तनाव को झेलते-झेलते रोगों का भंडार बन जाता है। नित्य नगरवासी नए-नए रोगों से परिचित होते हैं। इतनी व्यवस्था और साधनों के बाद, होना तो यह चाहिए की नगर में मृत्यु दर घटे परंतु आधुनिकता के दौर में आगे बढ़ने के चक्कर में या तो नगरीय जीवन तेज़ रफ्तार वाहनों से कुचला जाता है, या किसी लालच का शिकार हो जहरीले हवा, पानी, दवा, दारू या किसी नए रोग के कारण  मृत्यु की दौड़ मे आगे निकल जाता है।

हिंसा की वारदातें कहाँ नहीं होती। नगर में तो होती ही हैं गावों में भी आपसी मतभेदों को लेकर गुटों के बीच हिंसक झडपें होती हैं। दोनों जगह चोरी और लूट की वारदात होती है। लेकिन गावों में लोग हज़ार घटनाओं के बावजूद घर के बाहर भी खटिया डालकर चैन की नींद सोते हैं जबकि नगरों का हाल यह है कि घर के सभी खिड़की दरवाजों पर मोटे-मोटे ताले डालने पर भी चैन की नींद नहीं आती।

सदियों से पगडंडियाँ अपनी जगह बनी हुई हैं। आज भी अगर कोई पुरात्तविद् गाँव खोद के निकाले तो पगडंडियाँ अपनी जगह पर मिल ही जाएंगी। जबकि नगर की सड़क प्रतिदिन खोदी जाती है और फिर बनाई जाती है। यह नगर जीवन की अस्थिरता और उसकी बनती-बिगड़ती सभ्यता का प्रतीक है। पगडंडियों से ग्रामवासी अपने-अपने खेतों को सुरक्षित करते हैं ठीक अपने अस्तित्व की तरह। नगरों की सड़क सर्वजन हिताय हैं, उनका किसी के अस्तित्व से कोई लेना देना नहीं है, यहाँ तक की खुद के अस्तित्व से भी नहीं, ये अक्सर खोदी एवं बनाई जाती हैं। सड़क हो या पगडंडी चलनेवाला तो मनुष्य है। सडकों में परायेपन का अनुभव होते हुए भी जाने क्यूँ लोग इसी पर चलते हैं और पगडंडियों में अपनापन होते हुए भी इस पर कोई नहीं चलना चाहता।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]

5 thoughts on “सड़क और पगडंडी

  • नीतू सिंह

    धन्यवाद

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख ! पगडंडियाँ सड़क की पूर्वज होती हैं।

  • नीतू सिंह

    पगडंडियां तो अब सड़कों में परिवर्तित हो रही हैं। खत्म हो रहा है उनका अस्तित्व।

    • लीला तिवानी

      पगडंडियां कभी खत्म नहीं हो सकतीं, अपने देश में भी सड़कों पर चलना मुश्किल है. मैं तो रोज़ सुबह सत्संग पर भी पगडंडी से ही जाती हूं और शाम को कीर्तन पर भी. विदेश में तो सड़कों पर पैदल चलने की तो इजाज़त ही नहीं है, हर जगह सुविधाजनक पगडंडियां बनी हुई हैं.

  • लीला तिवानी

    प्रिय सखी नीतू जी, हम तो पगडंडियों के प्रेमी हैं. नए विषय का नया आकलन.

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