डाॅग फिलाॅसफी
कभी-कभी मैं सोचता हूँ इस देश में ‘डाॅग’ नहीं होते तो धनपतियों का क्या होता? दुनिया को कैसे पता चलता कि भारत में भी रईस रहते हैं। माफ कीजिएगा कुत्ते या श्वान नहीं। मैं डाॅग की बात कर रहा हूँ। डाॅग ने ही दुनिया को यह बतलाया कि हम हम गरीब भारत के भारतीय नहीं, संपन्ना इंडिया के इंडियन हैं। डाॅग हमारी रईसी के ताज का चमकता हुआ नगीना है। उस रईस को ‘रईस’ कहलाने का बिलकुल हक नहीं जिसके पास कोई डाॅग न हो। डाॅग से मेरा आशय उन कुत्तों से बिलकुल नहीं जिन मास्टर जी प्रायमरी कक्षा में निबंध लिखवाते थे-‘मेरा प्रिय पशु-कुत्ता’। और आप लिखते थे-‘हमारे घर में एक कुत्ता है, जिसका नाम मोती है। जिसकी एक दुम है जो हमेशा हिलती रहती है और टेढ़ी है। छी! छी!! जिस डाॅग की मैं बात कर रहा हूँ साहब वह पश ु हो ही नहीं सकता। वह सिर्फ डाॅग हैै। उसे कुत्ता कहना न सिर्फ कुत्तों का अपमान है बल्कि उस व्यक्ति के सम्मान को भी ठेस लगती है, जिसने उसे पाल रखा है।
कुत्ता, ‘कुत्ता’ होता है। डाॅग, ‘डाॅग’ होता है। डाॅग अपने मालिक के आत्मसम्मान को पालता है, अभिमान को बढ़ता है। मालिक, डाॅग को नहीं अपितु डाॅग, मालिक को पालता है। जितना बड़ा डाॅग, उतना बड़ा सम्मान और उतना ही बड़ा अभिमान। ठीक उसी तरह जितनी बड़ी मूँछ, उतनी बड़ी इज़्ज़त। इज़्ज़त अफजाई करने में डाॅग ने मैडम लोगों की बड़ी मदद की। जो बेचारी मूँछ रखकर इज़्ज़त नहीं बढ़ा सकती तो वह काम डाॅग ने कर दिया- उनकी सुंदरता में चार नहीं, पाँच चाँद लगा कर। पामेलियन से लेकर एल्सेशियन तक और जर्मन शेफर्ड से लेकर लेब्रोडाॅग तक, सब हमारी सभ्य और सुशील संस्कृति के परिचायक हैं। कुत्ते, सभ्य हो गये और आदमी असभ्य हो गया। आदमी का जीवन कुत्तों से बदतर हो गया। ‘कुत्ता’ डाॅबरमेन हो गया और मेन- कुत्ता।
सच में कुत्तों का माफ करना डाॅगों का हमारे समाज पर बड़ा ऋण है। एक ज़माना वह था जब गायों की संख्या किसी परिवार की संपन्नता और शान की बोधक होती थी। आज कल डाॅग ‘बेटा’ या डाॅग ‘बेबी’ घरवालों का सम्मान बढ़ाते हैं। सोफा और बेडरूम में बैठकर हमारे जीवनस्तर को खड़ा करते हैं। उसे ऊँचा उठाते हैं। परिवार में बुजुर्गों का सम्मान हो या न हो या व्यक्ति कितनी भी नीच हरकत क्यों न करें, ये डाॅग उनका जीवनस्तर ऊँचा कर देते हैं। अर्थशास्त्र में मैंने पढ़ा था। एक रेखा होती है-गरीबी की रेखा। डाॅग की उपस्थिति किसी को भी गरीबी की रेखा से ऊपर उठा देती है। कुत्ते बेचारे आज भी झोपड़पट्टी और गली-कूचों में गरीबी की रेखा के नीचे रहते हैं। मैंने कई बार देखा है कि लोग इन आत्मसम्मान और अभिमान के सामानों को साथ लेकर सड़क के किनारे बड़ी शान से चलते हैं। कई बार वे बगल से गुजरने वाले को देखते हैं, फिर अपने डाॅग को, फिर अपने को। और इसके बाद उनकी चाल में एक दर्प छा जाता है।
ऐसे समय सड़क के किनारे के कुत्ते बड़ी आत्मपीड़ा से गुजरते हैं। कुत्ते, डाॅग को देखकर गुर्राते हैं, भौंकते हैं। सब व्यवस्था के अंग हैं। ये आत्मसम्मान के सामान सड़क के किनारे-किनारे अपनी सभ्यता के अवशेषों को टपकाते हुए चलते हैं। मेडम खुश होती है। कितना समझदार है। जो बात अपने दो साल के बेटे को जन्म देने के बाद आज तक नहीं सीखा पाईं, उनका ये ‘पिल्लू’ साथ चलने पर ही सीख गया। घर गंदा नहीं करता। जो भी करना होता है बाहर कर लेता है। डाॅग जो है। कुत्ता थोड़े ही है। फिर लिपिस्टिक लगाती है। मैं सोचता हूँ फिर तो बेचारे कुत्तोें को बुद्धिजीवियों की श्रेणी में रखना चाहिए। पैदा होते हैं नाली के किनारे लेकिन उन्हीं सिखाना नहीं पड़ता कि मोती! घर गंदा नहीं करो। बाहर जाओ। उनका जीवन ही मल्टीस्टारर और सड़क छाप होता है। फाइवस्टार नहीं।
मझे अपने मोहल्ले की एक घटना याद आ रही है। हमारे मोहल्ले में एक बंगलानुमा घर हुआ करता था। उसमें एक रहती थी एक डाॅगी। जिसका नाम था- पप्पी। बड़ी सुन्दर, शरारती, लहराती जुल्फें। नागिन जैसी बलखाती चाल देखकर मोहल्ले के सारे कुत्ते एक साथ भौंकते जबसे वह इस बंगलेनुमा घर में आयी मोहल्ले के कुत्तों में एक अजीब टाईप की हलचल मच गयी थी। सारे कुत्ते उसकी एक झलक पाने के लिए उस बंगले के दो-चार चक्कर दिनभर में लगा लेते थे। जो डाॅगी की मालकिन को तड़पाता था। जब मेडम की गोद में बैठकर बाहर निकलती तो लगता घने बादलों में पूनम का चाँद लिपटकर जा रहा हो। सारे कुत्ते उसककी तरफ फ्लाइंग किस फेंकते, मगर वह किसी को घास नहीं डालती थी। कार में बैठकर मेडम के साथ घूमने निकलती तो सारे कुत्ते उसे देखने के बहाने कार के टायर पर अपना एक टाँग वाला दर्शन बरसा आते। मोहल्ले की सारी कुतियाँ उदास रहतीं।
इन्ही कुत्तों में से एक था-दादा। था बिलकुल, कुत्ता। मगर सब उसे दादा ही पुकारते थे। कुत्तों में बड़ा रुतबा था उसका। हर कुतिया दीवानी थी। जब गरदन ऊँची कर भौंकता तो सब उसके आसपास खड़ी होकर उसकी तरफ हसरत भरी नज़रों से देखतीं। साहब यदि खड़ा होकर गुर्रा देता तो सारे कुत्ते, बिल्ली की तरह दुम दबाकर भाग जाते थे। अपनी मालिक की दुकान के सामने बैठा रहता था। मज़ाल कि कोई बिना पैसे दिए चाय पीकर चला जाए। बड़ी पारखी नज़र थी दादा की। पर एक दिन दादा की नज़र डाॅगी ‘पप्पी’ से चार हो गई। दादा गुर्राना भूल गया। बस चैबीसों घंटे पप्पी के बंगले के दुम हिला-हिलाकर चक्कर काटता रहता था। उधर पप्पी भी उसके कुत्तेपन पर फिदा हो गई थी। बेचारी मालकिन की नज़र बचाकर बड़े ही संयत कदमों से बंगले के गेट तक आती थी, दादा को देखकर कूं-कूं की सुरीली आवाज़ निकालती और दादा के आने पर शर्माकर चली जाती।
दादा को भी कहीं कोई हड्डी-वड्डी टाइप की चीज़ मिलती तो पप्पी को लाकर देता। पप्पी उसे बड़े प्यार से चूसती थी। मेडम की दी महँगी बिस्किटों में से बचाकर वह भी दादा को खिलाती। दादा उसे बड़े प्रेम से चूसता, चपड़-चपड़। वह ठहरा बेचारा साधारण कुत्ता। भला वह क्या जाने बिस्किट जाने का तरीका! पर साहब इश्क और मुस्क भी भला छिपाए, कहीं छिपते हैं। मोहल्ले के कुत्तों को जब यह पता चला तो। मारे गर्व के उनका सीना फूल गया। इंसान होते तो ईर्ष्या करते!! मगर वे तो कुत्ते थे। अब देखो ना चाँद पर पहला कदम तो नील आर्मस्ट्रांग ने रखा था। पर कहलाती तो वह पूरे मानव जाति की विजय ही है ना? सारे कुत्ते सोचते चलो जो काम हम न कर सके, वह इसने कर दिया। पर मैडम को चिंता थी अपनी पप्पी के ‘बिगड़ने’ की। भला एक नीची जाति का कुत्ता और उसकी डाॅगी ‘पप्पी’। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली?
उन्होंने अपनी सहेली सहेली शर्माइन के डाॅबरमेन ‘जाॅनी’ से पप्पी का रिश्ता पक्का कर रखा था। हुआ यह कि एक दिन दादा ने चाय की दुकान से डबल रोटी चुराकर पप्पी को दी। मैडम ने यह देख लिया और मौके का फायदा उठाया। थोड़ी देर बाद पप्पी वही डबलरोटी के लिए बाहर आई। सदा की भाँति धीमी आवाज़ में दादा को पुकारा- कूँ-कूँ। दादा दौड़ा-दौड़ा आया। डबलरोटी खाई और गिर पड़ा। गरीबी की रेखा के नीचे। गरीबी की रेखा उसे कुचलती हुई निकल गई। उसके नीचे दबकर वह फिर न उठ सका। मैंने पहले ही कहा था न। डाॅग, डाॅग होता है और कुत्ता, कुत्ता। यही है कुत्ता दर्शन यानि डाॅग फिलाॅसफी।
आधुनिक संकुचित मानसिकता पर करारा व्यंग्य !
सार्थक लेखन
कई बिंदु को समेटे ,लपेट
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