गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : गंगा नहाने आ गए

पाप गठरी सिर धरे, गंगा नहाने आ गए।
सौ जनम का मैल, सलिला में मिलाने आ गए।

ये छिपे रुस्तम कहाते, देश के हैं सभ्य जन
पीढ़ियों को तारने, माँ को मनाने आ गए।

मन चढ़ी कालिख, वसन तन धर धवल, बगुले भगत
मंदिरों में राम धुन के, गीत गाने आ गए।

रक्त से निर्दोष के, घर बाग सींचे उम्र भर
रामनामी ओढ़ अब, छींटे छुड़ाने आ गए।

चंद सिक्कों के लिए, बेचा किए अपना ज़मीर
चंद सिक्के भीख दे, दानी कहाने आ गए।

लूटकर धन धान्य, घट भरते रहे ताज़िन्दगी
गंग तीरे धर्म का, लंगर चलाने आ गए।

इन परम पाखंडियों को, दो सुमति भागीरथी
दोष अर्पण कर तुम्हें, जो मोक्ष पाने आ गए।

कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- [email protected]

2 thoughts on “ग़ज़ल : गंगा नहाने आ गए

  • कल्पना रामानी

    बहुत बहुत धन्यवाद आ॰ सिंघल जी

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

    चंद सिक्कों के लिए, बेचा किए अपना ज़मीर
    चंद सिक्के भीख दे, दानी कहाने आ गए।

    वाह वाह !

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