गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

भीख की बू आती है तेरी इनायतों से
हम दूर ही अच्छे तेरी सियासतों से

प्यार भरी नजर भी लगती है अहसान
हम महरूम ही भले तेरी अदावतों से

पुकारता है भीड़ का तन्हा सा शोर
खाली है महफ़िल तेरी बगावतों से

आगाही दे रहा है सब्ज़े-रायगाँ भी
मर्ग सा है गुलशन तेरी अदायतों से

अश्कों के मोती फिसलते लगते ज्यों
रुखसारों पे काफिले तेरी क़यामतों से

वस्ल के हर लम्हें नकाबी है “मुस्कान”
चालबाजियों में भरे तेरी रिवायतों से

निर्मला “मुस्कान”

आगाही-चेतना
सब्ज़े-रायगाँ–बेकार हरियाली
मर्ग–मृत्यू
अदायत–प्रार्थना
रिवायत_परम्परा

निर्मला 'मुस्कान'

निर्मला बरवड़"मुस्कान" D/O श्री सुभाष चंद्र ,पिपराली रोड,सीकर (राजस्थान)

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतरीन ग़ज़ल ! लेकिन फारसी के शब्दों की भरमार खटकती है.

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