मधुगीति : चहकित चकित चेतन चलत !
चहकित चकित चेतन चलत, चैतन्य की चितवन चुरा;
जग चमक पर हो कर फ़िदा, उन्मना हो हर्षित घना !
शिशु तपस्वी गति प्रस्फुरा, विहँसित बदन हो चुलबुला;
हुलसित चला हो कर जुदा, गुरु मात पित संगति भुला !
बाधा विपद ना लख रही, थी द्रष्टि ओझल हो रही;
झलमल लखे रुनझुन चले, धुनि मनोहारा वे रमे !
अनुभव अमित अनुभूति चित, उर्वर हुए भास्वर प्रमित;
थरथर चलाचल भव निरख, धावत फिरत त्रिभुवन तकत !
उल्लास हर पग लड़खड़ा, आनन्द की लड़ियाँ दिखा;
उर माधुरी ‘मधु’ को चखा, माया से महका कर मना !
— गोपाल बघेल ‘मधु’
वाह
मन खुश हो गया पढ़ कर