कविता

मधुगीति : कबहू उझकि कबहू उलटि !

कबहू उझकि कबहू उलटि, ग्रीवा घुमा जग कूँ निरखि;
रोकर विहँसि तुतला कभी, जिह्वा कछुक बोलन चही !
पहचानना आया अभी, है द्रष्टि अब जमने लगी;
हर चित्र वह देखा किया, ग्रह घूम कर जाना किया !
लोरी सुने बतियाँ सुने, गुनगुनाने उर में लगे;
कीर्तन भजन मन भावने, लागा है शिशु सिख बूझने !
नानी कहानी समझता, वह बीच कुछ कह डालता;
हाथों परश पग डोलता, कर उठा कर कुछ बोलता !
दिन चवालीस भव को परख, चुटकी व ताली शब्द सुन;
‘मधु’ वत्स बोधा सा लगा, प्रभु की प्रभा का उत्स लखि !
गोपाल बघेल ‘मधु’