गीत/नवगीत

मधुगीति : मोहत रहत मो कूँ चहत

मोहत रहत मो कूँ चहत, मुड़ि मुड़ि तकत चित रिझावत;
होली पे कान्हा खिजावत, वाँशी बजा ढ़िंग बुलावत !
मन धीरें धीरें उठावत, दै कें पुलक पुनि नचावत;
बाधा बिपद ते बचावत, ना कबहु मो ते रिसावत !
फुर तान में सुर ताल में, तन्मय किए नित ध्यान में;
नव ज्योति मो कूँ दिखावत, बृह्माण्ड ता में समावत !
खोजत रहत निज कूँ रहति, दिन रैन की गति ना भनति;
अनुचित उचित भूले चलत, भू तल पे ताके गति विरति !
पद परशि उर, हृद दरशि हद, बे-झिझक केशव कूँ लखति;
‘मधु’ मोहना मो कूँ तकतु, माधव की माया कूँ चखत !
गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा

One thought on “मधुगीति : मोहत रहत मो कूँ चहत

  • विजय कुमार सिंघल

    आपके गीत उत्तम होते हैं, पर उनकी भाषा बहुत कठिन होती है, जिसका अर्थ समझना बहुत ही कठिन होता है. यदि कुछ सरल बी हशा का प्रयोग करें तो बेहतर होगा.

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