अजकर करे न चाकरी – भाग 1
कालू चारपाई पर लेटा-लेटा सोच रहा था, जी हाँ सोच रहा था। कालूराम सोचते भी हैं ये बात वो खुद नहीं जानते क्योंकि सोचना उन्होंने सीखा ही नहीं। उन्हें तो बस दो ही चीजें आतीं हैं एक है सोना और सोना मतलब कोई मामूली सोना नहीं बल्कि खरा सोना याने टांग पसार कर गहन निंद्रा में सोना। संसार के जितने लोगों ने अपनी विभिन्न गतिविधियों, जैसे व्यापारी ने मुनाफे की चिंता में, राजनीतिज्ञ ने बवाल मचाने की चिंता में, वैज्ञानिक ने जुगाड़ की चिन्ता में, प्रेमी ने प्रेम की चिंता में, लड़की के पिता ने शादी की चिंता में, अभिभाव कों ने बालक के नंबरों की चिंता में जो नींद खोई है वह सब यह कालूराम खोज लाए हैं और अकेले ही उसका भोगकर रहे हैं। भोग से याद आया की कालूराम की सीखी हुई दूसरी चीज है भरपूर भोजन करना और भरपूर भोजन करने का मतलब………..अब यहां जरुरी नहीं की हर शब्द का कोई और मतलब हो ही, इसलिए यहाँ भरपूर भोजन करने का मतलब भरपूर भोजन करना ही है। मगर कुछ दिनों से दिनोंदिन उनकी खुराक बढ़ती ही जा रही है और भोजन का बंदोबस्त नहीं हो पा रहा है।
जैसा कि हमने कहा कालूराम जी चारपाई पर लेटे थे और जो हमने नहीं कहा वह ये है की वो ऐसी चारपाई पर लेटे थे जिसके दोनों सिरे उनके लिए छोटे पड़ रहे थे। एक तरफ से तो उनकी ऐडियां कछुओं की तरह मुँह निकाले हुई थीं और दूसरे सिरे पर वह अपने दोनों हाथ छ्ज्जे से लटक रहे लौकी की तरह लटकाए थे। तो फिलहाल तो वे लेटे-लेटे बस सोच रहे थे। और बड़ी गंभीर बात सोच रहे थे जिसकी कालू जैसे मनुष्य से सोचे जाने की कल्पना नहीं की जा सकती। तो वे सोच रहे थे कि जीवनभर तो चारपाई पर लेटे नहीं रह सकते। अब तो बाप ने भी पालने-पोसने से मना कर दिया है। अब अपने खाने-पीने का खुद ही इंतजाम करना पड़ेगा। लेकिन काम क्या करूँ? कोई काम मनभावन हो तो करूँ। हर काम में तो मेहनत लगती है। जाने कैसे मैं इस कोल्हू के बैल के घर पैदा हो गया। जब से खाट छोटी पड़ी है ये तो मुझे ही जोतने में लगा है। किसी धन्ना सेठ के घर पर पैदा होता तो दिनभर दूध-मलाई चाँपता और मखमली गद्दे पर पड़ा रहता।
कालू अभी दूध-मलाई के सागर में गोते लगा रहा था कि एक आवाज़ ने उसे किनारे पर ला पटका। “जोगी खड़ा है जोगी…..तेरे द्वार पर जोगी खड़ा है।“ इस कर्कश आवाज़ ने कालू के स्वप्न लोक में भी पत्थरों की बरसात कर दी। कालू ने मुँह टेड़ा कर साधु के शब्दों को दुहराया जोगी ख़ड़ा है जोगी……तो खड़ा रहे। यह क्या हेकडी है। भीख भी माँगना है तो शान से। उल्टा घरों की औरतें डरती हुई भागी-भागी जाती हैं कि कहीं नाराज़ होकर श्राप न दे दे।
कालूराम सोच चुका था कि कोई कितना भी शोर मचाए वह बिस्तर नहीं छोड़ेगा। इसलिए बाबा जी लाख चिमटा बजाते रह गए पर वह अपनी चारपाई में धंसा रहा। ऐसे आदमी से तो जन्म देने वाले ने भी आस छोड़ दी भला साधु कब तक आस की डोर थामें रहता। साधु ने भी आस छोड़ दी और मुड़कर जाने ही वाला था कि चारपाई की चर्मराहट से ठिठक गया। बेचारा कब से साँस रोके लेटा था और सब्र का बांध टूटा भी तो गलत समय पर। अब तो लाख छिपा ले लेकिन साधु भी जान गया है कि घर में कोई न कोई तो है इसलिए एक बार और आवाज़ लगाई और जमकर आवाज़ लगाई –“दाता की मनोकामना पूर्ण होगी…..माता, बहन कोई हो घर पर तो दान के लिए आगे बढें”। साधु का तीर सीधा कालू के मर्म को भेद गया और ऐसा भेदा कि कालूराम हिल गए। जी हाँ हिल गए और वह भी अपनी चिरसंगिनी खटिया से हिल गए और साधु के सामने जाकर खड़े हो गए।
”क्यों बाबा जी! सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं तो अपनी मनोकामना पूरी कर खाने का इंतज़ाम खुद क्यों नहीं कर लेते। घर-घर घूमकर माताओं-बहनों की मनोकामना क्या पूरी करते चलते हैं।“
साधु सकपका गया। ऐसा तो वो तब भी नहीं सकपकाया था जब किसी माता-बहन के शिशु ने खेल-खेल में उसकी दाढ़ी नोच ली थी। दुखा तो बहुत था मगर साधुओं का तो दुख और सुख समान रूप से झेलने की परम्परा है इसलिए चाहकर भी साधु उस शिशु को उसकी उद्दंडता के लिए पटक-पटकर पीट न सका। यहाँ भी वही हाल था कालू की बात का कोई जवाब देते न बन रहा था तो बोला – “देनेवाला राम है मेरा पेट तो वही भरता है और वही सबका पेट भरता है। तुम्हारा भी।” अब यहाँ बारी-बारी से सकपकाने का खेल खेला जा रहा था क्योंकि अब बारी कालूराम की थी। आखिर साधू कैसे जान गया कि वो अभी-अभी अपने पेट भरने के लिए ही चिंता कर रहा था। फिर उसने सोचा कि यह तो उसका नित्यकर्म ही है तो इसमें सकपकाने की क्या बात है इसलिए अब कालू ने सकपकाने की गेंद को वापस साधू की ओर उछाल दी कि ले बेटा तू ही सकपका और साधू से कहा- “अच्छा अगर मैं न दूं और तुमसे कहूँ कि कल आकर अनाज ले जाना तो तुम आज कैसे पेट भरोगे और कल अनाज रहते हुए भी कैसे भूखे रह जाओगे।” साधू ने तो सकपकाने की बजाए वो हंसना शुरू कर दिया। शायद साधु कहना चाहता था कि तू निर्लज्ज और कामचोर है तो क्या हुआ और दूसरे थोड़े न हैं। “मैं तो बेटा तीन घर और देखूँगा। तुम नहीं दोगे तो कोई न कोई दे ही देगा। और रही बात कल की तो कल तुम मुझे चाहें अन्नापूर्णा का पात्र ला दो। मैं तो भोजन करने से रहा, एकादशी जो ठहरी।“ इस समय तक तो साधु ने इतनी अक्ल बटोर ही ली थी कि यहाँ दाल तो क्या बर्फ भी नहीं गलेगी। सो कालूराम को विचारमग्न छोड़, जो कि वो कभी-कभार ही होते थे, साधु अपनी राह निकल गया। अब कोई अपनी राह निकल कर यह सोचे कि वह निकल ही लिया तो यह ज़रूरी नहीं है क्योंकि इस समय साधु भी अपनी राह निकलने के बावजूद पूरी तरह से निकल नहीं पाए। हुआ दरअसल यूँ कि साधु के राह पकड़ते ही कालूराम एक भयंकर विचार के प्रकोप से ग्रस्त हो उठे और यह विचार भी कोई अपना विचार नहीं था बल्कि उसी साधु के विचारों से साभार उद्धृत किया गया था और वह विचार था कि यदि राम ही सबका पेटभर रहे हैं और इस साधु का भी भर रहे हैं तो मेरा भी भरेंगे ही। तो क्यों न जिस तरह से साधु का भर रहे हैं उसी तरह मेरा भी भरें। कालूराम ने निश्चयात्मक मुद्रा लेते हुए; हांलाकि निश्चयात्मक मुद्रा में कालूराम तभी आते थे जब वे कुछ खाने की ठान लेते थे या फिर तब जब वे गहन निन्द्रा में जाने की सोच लेते थे; मगर फिलहाल तो उन्होंने पहली बार किसी और बात के लिए निश्चयात्मक मुद्रा लेते हुए यह निर्णय किया कि साधु बन जाएं तो पेट भरेगा और काम भी नहीं करना पडेगा। परंतु उनके निश्चय ले लेने से क्या होता है। साधु बनना कोई आसान काम तो है नहीं इसका उदाहरण तो अभी-अभी कालू ने देखा ही कि कैसे साधु ने फट से बता दिया कि कल एकादशी है तो भिक्षाटन नहीँ करना है। अब भला कालूराम को कौन बताए की कब क्या करना है। अभी कालूराम दुविधाओं के इन झंझावातों में उलझे ही हुए थे कि भागते भूत से वह साधू बाबा दिखाए दिए जिनकी ओर कालूराम लपक लिए। मगर साधू अपनी लंगोटी बचाकर भाग लिए और कालूराम उस महान साधु के महान शिष्य बनने से चूक गए।
अब कालूराम को कौन समझाए की डेढ़ किलो घी पीने के निश्चय में और साधू बनने में फर्क होता है। मगर कालू राम तो ज़िद्दीया गए हैं और गुरु ढूँढने निकले हैं। ढूंढते-ढूंढते वो गाँव के बाहर एक छोटे से जंगल पहुँच गए जहाँ एक बाबा धूनी रमाए बैठे थे। धूनी के चारो ओर चार-पाँच शिष्य ऐसे पहरा दे रहे थे जैसे वह भयंकर दाढ़ी और भस्म रमाया हुआ साधु साधु न होकर कोई अप्सरा हो जिसका कोई अपहरण कर लेगा और कालूराम को भी शिष्यों ने ऐसे ही रोका जैसे वह उस भयंकर दाढ़ी और भस्म लिपटाई अप्सरा का अपहरण ही करने वाला हो। अपहरण तो क्या करता दर्शन के लाभ से उसे वंचित कर दिया गया।
कालूराम ने सोचा ये शिष्य अपने आप को समझते क्या हैं आखिर वह भी शिष्य बनने ही तो आया है और बन जाएगा तो इन सब सूखी हड्डी के ढांचों से बेहतर शिष्य ही बनेगा इसलिए वह उनसे भिड़ गया।
कोलाहल सुनकर साधु की तंद्रा टूटी या शायद निद्रा। कौन जाने? मगर साधु की आँखें खुलते ही कालूराम ने उनके चरण इस तरह पकड़ लिए जैसे किसी छ्प्पन भोग से सजे थाल को पकड़ता, क्योंकि वह जानता था कि वह छप्पन भोग थाल हो न हो उसका स्रोत जरूर हैं जहाँ से उसे जीवन भर बैठे-बैठे खाने को मिलेगा।
साधु महाराज को वैसे तो इस उद्दंडता के लिए क्रोधित होना चाहिए था मगर उन्होंने तो एक चैन की सांस ली कि इस हाथी ने इतनी कसकर केवल पैर पकड़े, कहीं गर्दन-वर्दन पकड़ लेता तो इतने सारे याद किए हुए श्रापों में से कोई भी श्राप नहीं दे पाते, उससे पहले ही उनके प्राण-पखेरू उड़ जाते।
अपने प्राण बच जाने की प्रसन्नता में साधु ने जैसे वरदान देना चाहा –“बोलो वत्स! क्या कष्ट है?”
”प्रभु! अपने शरण में लें। आपका शिष्य बना लें। तभी मेरा उद्धार संभव है।“
दाढी वाली अप्सरा मुस्कुराई मगर मोहित कोई नहीं हुआ।
“बालक! जा घर जा। तेरे घरवाले तेरी राह देखते होंगे। यह मार्ग तुम्हारे लिए नहीं है।“
”ऐसा मत कहें प्रभु! मैं घर-बार छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ। मुझ अनाथ को शरण में ले प्रभु।“
प्रभु तो शरण में रह रहे शिष्यों को देखने लगे और अनाथ को भूल गए।
कालू राम को लगा कि यह साधु तो मुझे अपनी राह पर ले ही नहीं रहा। अब क्या होगा। कहीं भूखे न मरना पड़े।
कालूराम साधु के चरणों में पूरा लेट गया।
”प्रभु! अब आप ही बचा सकते हैं मेरे प्राण। आप की शरण नहीं तो फिर मृत्यु की शरण ही है मेरे लिए।“
जोगी जी घबरा गए। कहीं इस मोटू ने आत्महत्या कर ली तो सारा दोष उन्हीं के सिर आएगा और उनके सारे पुण्य मिट्टी में मिल जाएंगे। मगर मोटू राम का दरअसल आत्महत्या का कोई विचार नहीं था। वह तो बस यह कह रहा था कि अगर ऐसा न हुआ तो वह भूखा ही मर जाएगा।
”उठो वत्स! उठो।“
साधु ने कालू राम को उठाने का भरसक प्रयत्न किया परंतु वह तभी उठा जब अपने से उठा और स्वाजी की लाज रख ली।
”आज से तुम्हें मैं अपना शिष्य स्वीकार करता हूँ। परंतु याद रखना कि यह राह सरल नहीं है। बड़े-बड़े व्रतधारी चूक जाते हैं।“
कालूराम ने सोचा मांगकर खाने से भी आसान कुछ हो सकता है क्या?
साधू जी महाराज बोलते रहे – “यम, नियम, संयम, तप संग रहना होगा।“
कालूराम ने चारों शिष्यों को देखा और सोचा इन चारों के साथ रहना होगा। ज़्यादा चूँ चपड़ करेंगे तो दो को एक काँख में और दो को दूसरी काँख में दबा के चाँप दूँगा तो चूँ भी नहीं निकलेगी।
इतना सोचकर कालूराम खुश। साधु के चरण छू कर बोले “जो गुरुदेव की आज्ञा।“
पता नहीं फिर गुरुदेव ने उसके सिर पर हाथ रखकर क्या फुसफुसाया –“आयुष्मान भव” या “पहलवान भव”।
मगर बाकी शिष्यों का चेहरा उखड़ा-उखड़ा लगने लगा। गुरु ने एक शिष्य को पुकारा “सोमनाथ! पुत्र सोमनाथ।“
एक दुबला-पतला हड्डियों का ढांचा गुरुदेव के आगे हाथ जोड़कर खड़ हो गया। “जी गुरुदेव”
”जाओ! अपने गुरुभाई को हमारे यजमानी गाँव में ले जाओ और सूर्यास्त से एक पहर पहले आज की भिक्षा ले आओ।“
उस हड्डी राजा ने अपने सर पर आज्ञा का बोझ उठाया और कालूराम के संग चल पड़ा। कालूराम जहाँ अपने थुल-थुल शरीर को तेज़-तेज़ लुढ़काकर भी गति नहीं पकड़ पा रहे थे वहीं वह हड्डियों का ढाँचा हवा मे उड़ा जा रहा था।
कालूराम सुस्ताने की मंशा से एक पीपल की छाँव के निकट ठहर गए और बैठने को हुए। सोमनाथ उनके चारों ओर से उन्हें उठाने का भरसक प्रयास करता हुआ ऐसा दृश्य प्रदान कर रहा था जैसे कीचड़ में लोट-पोट हुई भैंस के ऊपर कोई कौवा उड-उड़कर कभी इधर बैठता हो कभी उधर और भैंस भी बस पूँच से उसको हाँक भर देती हो मगर उठने का नाम न लेती हो।
”जल्दी चलो कालूभाई नहीं तो हम तीसरे पहर तक भोजन लेकर नहीं लौट पाएंगे।“
भोजन का नाम सुनते ही कालूराम के ढुलकते शरीर में नई उर्जा का संचार हुआ। कालूराम तेज़ी से चलने या और तेज़ी से लुढ़कने लगे।
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HA HA, INTERESTING, KAALU RAAM KI JAY HO !
…..कहानी अभी आगे भी है सर। कालूराम ने अभी और भी गुल खिलाएं हैं…..