अपने ही आघात दे रहे…
अपने ही आघात दे रहे, आंसू दिन और रात दे रहे।
चीर रहे है मां का आंचल, मर्यादा को मात दे रहे॥
उठते ज़हरीले नारों से, शैतानी अत्याचारों से।
किया कलेजा छलनी मां का, देशद्रोह के प्रहारों से॥
लहु लहु में फर्क हो गया, देश प्रेम भी तर्क हो गया।
तर्को की आपाधापी में, देश प्रेम बस गर्क हो गया॥
अविश्वासों की धारा में, अपनेपन का सार बह गया।
भाई से भाई का, कहने सुनने का अधिकार बह गया॥
छोड रहें है नये शगूफ़े, सब कुछ तार तार कर देगे।
ये छुटभैये नही रुके तो, सबकुछ बंटाधार कर देगे॥
सभ्यताओं का देश हमारा, संस्कृति का उदगम स्थल।
सही आचरण नही किया तो, रह जायेगा बन बीता पल॥
श्रेष्ठ वही साबित होता, जो कर्म ध्वजा फहराता हो।
अपनी तदबीरों से, नित्य नवल आयाम बनाता हो॥
मत खंगालो बीती बातें, साधो लक्षय नवल युग पर।
सत्य कर्म के बनो पुजारी, दोष न वारो कलियुग पर॥
कथनी करनी के अंतर को, जब तक नही मिटाओगे।
भारत माता के आंचल में, स्वर्ग बसा नही पाओगे॥
मौका है सब कुछ करने का, हर हालत करना होगा।
दंभ छोड कर सचमुच, देश प्रेम को बस वरना होगा॥
बंद करो धर्मों की हिस्सेदारी, देश की संसद में।
कर्मकाण्ड की नही जरुरत, लोकतंत्र के मंथन में॥
बडी धर्म से मानवता है, और सभी से राष्ट्र बडा।
बदलो सोच हमारी ख़ातिर, वक्त रहेगा नही खडा॥
सदभावों को दरकिनार कर, जीत भले ही हो जाती।
दिल जीते जो जीत मिले, पर जीत वही मंगल गाती॥
सतीश बंसल
सार्थक लेखन
उम्दा रचना
आभार आद. विभा जी