गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कहाँ वो मय का नशा  और तेरा शबाब कहाँ,
कहाँ चिराग़  की गर्मी  और आफ़ताब  कहाँ।

अगरचे दिल है जवाँ आज भी तो क्या करिये,
लहू में हाल -ओ- ज़ुरअत के  वो हुबाब कहाँ।

अगर   है  आपको  पढ़ना  तो   चेहरे  पढ़िये,
मिलेगी  आपको  ऐसी   कोई  किताब  कहाँ।

गिरहकुशा  सी ख़लिश उँगलियों में पैदा करें,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ में  ऐसे  वो पेंचो – ताब  कहाँ।

कभी जो  दर पे  तेरे  हो  सकूँ मैं  ज़ेर ज़िबीं,
मेरे   नसीब   में   ऐसा  कोई   सवाब  कहाँ।

कभी था वक्त कि गिनती के वाक़यात ही थे,
उसी फ़रेबो-ख़ियानत का  अब हिसाब कहाँ।

वो पूछते हैं  कि क्या  देख  तुम हुए थे फ़िदा,
मैं  सोचता  हूँ कि  अब  ढूँढिये  जवाब कहाँ।

ये  ‘होश’  दर्द  के   पहरे  कहाँ  उठेंगे  अभी,
हुई   है  चोट  पे   हावी  अभी  शराब  कहाँ।

हाल-ओ-जुरअत – जोश ख़रोश ; हुबाब – बुलबुले ;
गिरहकुश – गिरह/गाँठ खोलने को उत्सुक ;
ज़ेर ज़िबीं – सिज़्दा ; सवाब – पुण्य ;  फरेब – धोखा ;
खियानत – कपट से दूसरे की वस्तु हथियाना ।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह ! बहुत सुन्दर !!

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