ग़ज़ल
कहाँ वो मय का नशा और तेरा शबाब कहाँ,
कहाँ चिराग़ की गर्मी और आफ़ताब कहाँ।
अगरचे दिल है जवाँ आज भी तो क्या करिये,
लहू में हाल -ओ- ज़ुरअत के वो हुबाब कहाँ।
अगर है आपको पढ़ना तो चेहरे पढ़िये,
मिलेगी आपको ऐसी कोई किताब कहाँ।
गिरहकुशा सी ख़लिश उँगलियों में पैदा करें,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ में ऐसे वो पेंचो – ताब कहाँ।
कभी जो दर पे तेरे हो सकूँ मैं ज़ेर ज़िबीं,
मेरे नसीब में ऐसा कोई सवाब कहाँ।
कभी था वक्त कि गिनती के वाक़यात ही थे,
उसी फ़रेबो-ख़ियानत का अब हिसाब कहाँ।
वो पूछते हैं कि क्या देख तुम हुए थे फ़िदा,
मैं सोचता हूँ कि अब ढूँढिये जवाब कहाँ।
ये ‘होश’ दर्द के पहरे कहाँ उठेंगे अभी,
हुई है चोट पे हावी अभी शराब कहाँ।
हाल-ओ-जुरअत – जोश ख़रोश ; हुबाब – बुलबुले ;
गिरहकुश – गिरह/गाँठ खोलने को उत्सुक ;
ज़ेर ज़िबीं – सिज़्दा ; सवाब – पुण्य ; फरेब – धोखा ;
खियानत – कपट से दूसरे की वस्तु हथियाना ।
वाह वाह ! बहुत सुन्दर !!