संस्मरण

मेरी कहानी 124

ऑपरेशन के बाद मैं ठीक तो हो गिया था और पहले जैसा जो कुछ खींच सा होता था, अब बिलकुल ठीक हो गिया था लेकिन ऑपरेशन की जगह हाथ लगाने से दर्द करती थी और ट्राऊज़र पहनने पर बैल्ट को टाईट करना भी असंभव हो गिया था। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे काम से मुझे ख़त आने शुरू हो गए थे और मुझे मैनेजर को मिलना पड़ता और मैं यूनियन के चेअरमैन को साथ ले कर मैनेजर के ऑफिस में जाता। मैनेजर काम पर वापस आने को कहता लेकिन मैं हर दम यही जवाब देता कि जैसे मेरा डाक्टर मुझे कहता है, मैं उसी हिसाब से काम पर आऊंगा किओंकि मुझे डर लगता था कि कहीं कोई गड़बड़ ना हो जाए। मैनेजमेंट मुझे फ़ोर्स तो नहीं कर सकती थी लेकिन मेरे दिमाग पे यह एक बोझ सा था। दिन बीतते गए और तीन महीने बाद मैं फिट नोट ले कर काम पे आ गिया।

जब पहले दिन ही बस की कैब में बैठा तो मुझे कुछ बेआरामी सी महसूस होने लगी। जब सड़क पर आया तो यूं ही रफ रोड पर बस चलती तो मेरी ऑपरेशन वाली जगह बहुत दर्द करती, ऐसे महसूस होता जैसे ऑपरेशन वाली जगह को कोई चाक़ू से काट रहा हो। अब यह दर्द मेरी रोजाना जिंदगी का एक हिस्सा ही हो गई थी। इस ऑपरेशन वाली बात को मैं तुष लफ़्ज़ों में यह ही कहूँगा कि इस ऑपरेशन ने मुझे इतना दुखी किया कि हर चार पांच साल बाद मुझे फिर ऑपरेशन करवाना पड़ता और इसी दुःख की वजह से मुझे २००१ में अर्ली रिटायरमेंट लेनी पडी जिस को मैं आगे चल कर बयान करूँगा।

अक्सर हम कह तो देते हैं कि इंसान को सकार्त्मिक सोच रखनी चाहिए लेकिन जब इंसान मुसीबतों में घिरना शुरू हो जाता है तो यह सब किताबों की बातें हो कर रह जाती हैं। इधर बेटिआं बड़ी हो रही थीं और इधर शरीरक कष्ट शुरू हो गए थे। दोनों बेटियां अब हायर सैकंडरी वैली पार्क स्कूल में पड़ती थीं और बेटा तो नज़दीक ही जाता था। तकरीबन दो साल बाद ही वैली पार्क स्कूल की नई बिल्डिंग हमारे नज़दीक ही बन गई और बेटियां घर के नज़दीक हो गईं और बेटा भी सेंट ऐंड्रयू स्कूल से पुराने वैली पार्क स्कूल में आ गया, यहां पहले बेटियां पड़ती थीं। बड़ी बेटी पिंकी अब कंप्रीहैंसिव स्कूल के आख़री साल में थी। जब एग्ज़ाम हुआ तो बेटी के ग्रेड बहुत अच्छे आये और स्कूल से निकलते ही वह वुल्फरन कालिज में दाखल हो गई, जिस में वह बीटैक कर रही थी।

कालज भी कोई दूर नहीं था, कुछ सहेलियाँ इकठी चले जातीं और आ जाती और कभी कभी मैं उन् को छोड़ और ले आता। दो साल में बीटैक खत्म हो गया और इस में भी पिंकी के ग्रेड अच्छे आये। कालज खत्म होते ही एक दिन वह शाम का पेपर देख रही थी, जिस में उस ने एक वेकैंसी देखी जो बर्मिंघम में थी और कौंसल में जॉब थी। पिंकी ने मुझे पुछा कि उस को इस जॉब के लिए एप्लाई करना चाहिए या नहीं। कुलवंत ने तो उस को यह कह कर मना कर दिया था कि रोज़ इतनी दूर जाना सेफ नहीं है। ” पिंकी तू एप्लाई कर दे ” कह कर मैंने बेटी का हौसला बढ़ाया। खुश हो कर पिंकी ने मैनेजमेंट को ऐप्लिकेशन फ़ार्म भेजने के लिए टेलीफोन कर दिया।

कुछ दिन बाद फ़ार्म आ गए। उस ने फ़ार्म भर कर भेज दिए। दो हफ्ते बाद ही पिंकी को इंटरवयू के लिए लैटर आ गया। जिस दिन इंटरवयू होनी थी, उस दिन की मैंने काम से छुटी ले ली। इंटरवयू लैटर के साथ ही मैनेजमैंट ने सारी डीटेल भेज दी थी कि उन के ऑफिस को ट्रेन से या कार से कैसे पहुंचा जा सकता था। इंटरवयू के दिन हम अपनी गाड़ी में आधा घंटा पहले ही पहुँच गए, गाड़ी कार पार्क में खड़ी करके हम शॉपिंग सेंटर में घूमने लगे। जब इंटरवयू का वक्त हुआ तो पिंकी बिल्डिंग के अंदर चले गई। इंटरवयू फिफ्थ फ्लोर पर थी। यह बिल्डिंग बहुत बड़ी थी, जिस के नीचे ही कार पार्क थी जो उस समय ही मुझ को पता चला वर्ना कार को पार्क करने के लिए मुझे दूर ना जाना पड़ता।

अब मैं भी विंडो शौपिंग करने लगा, आधा घंटा घूमने के बाद थक कर मैं कार पार्क में आ कर अपनी कार में बैठ गया और रेडिओ पे गाने सुनने लगा। आँखें बंद किये मैं मज़े से गाने सुन रहा था। पिंकी ने अचानक कार के शीशे पर दस्तक दी और मुस्करा रही थी। उस के गाड़ी में बैठते ही मैंने सवाल किया, “इंटरवयू कैसे रही”. पिंकी बोली ” डैडी बहुत आसान सवाल थे और मैंने भी निधड़क हो कर जवाब दिए, जॉब मिलेगी या नहीं, पता नहीं लेकिन मेरी इंटरवयू बहुत अच्छी थी “. मैंने गाड़ी स्टार्ट की और चल पड़े, रास्ते में एक केक शॉप से हम ने कॉर्निश पास्टीज ली और वहीँ गाड़ी में बैठ कर खाने लगे। इस के बाद आधे घंटे में ही हम घर आ गए।

इस इंटरवयू के दो हफ्ते बाद पिंकी को लैटर आ गया कि उस को इस जॉब के लिए चुन लिया गया है और अपने काम पर रिपोर्ट करे। मुझे याद नहीं यह कौन सी डेट थी लेकिन अब सवाल यह था कि पिंकी को बर्मिंघम, बस में जाना सूट करता था या ट्रेन में। मैंने निंदी को टैलीफोन किया तो उस ने बताया कि ट्रेन में जाना अच्छा रहेगा। जिस दिन पिंकी ने काम शुरू करना था, उस दिन भी मैंने काम से छुटी ले ली थी। हम ने ट्रेन के रिटर्न टिकट ले लिए और दोनों बर्मिंघम जा पहुंचे और मालूम भी हो गया कि पिंकी का काम ट्रेन स्टेशन से पांच मिनट दूर ही था। पिंकी को छोड़ कर मैं फिर वापस आ गया। शाम को जब पिंकी घर आई तो उस ने बताया कि काम उस को समझ आ गया था।

अब पिंकी ने ट्रेन का पास बना लिया और रोज़ काम पे जाने लगी और एक ख़ुशी दो महीने बाद ही और मिल गई कि पिंकी को वोल्वरहैंपटन में ही ट्रांसफर कर दिया गया है, यह तो अब घर जैसी बात ही हो गई। पिंकी का ऑफिस भी वोल्वरहैंपटन की इनडोर मार्कीट के ऊपर थर्ड फ्लोर पर था। बहुत दफा तो पिंकी मेरी बस में ही जाती थी। मेरा रूटीन एक और भी था कि हफ्ते में एक दफा मैं इसी मार्किट से दो बड़े बैग सब्जिआं और फ्रूट के भर लाता और उसी बस में रख लेता, जिस में मैंने काम शुरू करना होता था। काम खत्म होने पर मैं इसी बस में अपने डैपो चले जाता, यहां मेरी गाड़ी खड़ी होती थी, तब मैं दोनों बैग गाड़ी में रख कर घर आ जाता, इस से कुलवंत की भी मदद हो जाती। जब मैं मार्किट में शॉपिंग कर रहा होता तो पिंकी दूर से ही ऑफिस की खिड़की से मुझे देख लेती और नीचे आ कर मुझे मिल लेती और बैग से कुछ फ्रूट भी ले लेती। पिंकी को अब भी यह बातें याद हैं और हंस कर बहुत दफा बातें करती है।

ऐसे ही कई महीने गुज़र गए। एक दिन गिआनों और उन के पती अर्जन सिंह हमारे घर आये। गिआनो जिस के बारे में मैं पहले भी लिख चुक्का हूँ। यह हमारे बच्चों को जब वोह छोटे थे तो नर्सरी सकूल से ले कर आया करती थी और यह हमारे गाँव से ही थी । गिआनों हर साल मेरी कलाई पर राखी बांधती है लेकिन हमारे बहनोई अर्जन सिंह अब इस दुनीआं में नहीं हैं, इन के बच्चे हमें मामा मामी कह कर बुलाते हैं। उन्होंने आते ही कहा कि उन्होंने पिंकी के लिए एक लड़का देखा है, लड़के का पिता का अपना प्रिंटिंग बिजनैस है और लड़का भी अपने पिता के साथ वहीँ काम करता है।

सुन कर हम कुछ हैरान से हो गए किओंकि मेरे दिमाग में तो ऐसा विचार कभी आया ही नहीं था। पिंकी को पुछा तो वोह भी कुछ आना कानी करने लगी। गिआनों बोली, “तुम देख लो, अगर पसंद नहीं आया तो नाह कर देना, ऐसी कोई बात नहीं है”. एक रविवार को लड़का देखने का प्रोग्राम बना लिया गया। उस सुबह लड़के वाले लड़के को ले कर लंडन से आ गए। ज्ञानों के घर ही सारा प्रोग्राम हुआ। लड़का सुन्दर था, बातें हुईं, दोनों ने एक दूसरे को पसंद कर लिया लेकिन पिंकी ने बोल दिया कि वह अभी एक साल शादी नहीं कराना चाहती। इस बात पे लड़के वाले भी राज़ी हो गए और बात तय हो गई।

यह रिश्ता इस तरह से हुआ कि ज्ञानो की लड़की की शादी भी कुछ साल पहले लंदन ही हुई थी। लड़की के ससुर की बहन भी नज़दीक ही अक्सब्रिज में रहती थी और उन का बिज़नेस साउथहाल में था। जिस लड़के चरनजीत के साथ हमारी पिंकी का रिश्ता हुआ वह इस लड़की के ससुर की बहन का ही लड़का था। इस तरह हम को भी एक हौसला सा हो गया था कि ज्ञानो की लड़की पिंकी के नज़दीक होगी तो पिंकी को भी एक तरह की सपोर्ट मिलेगी।

उस समय एक रिवाज जो आम ही था कि जो भी लड़किओं को तनखुआह मिलती थी, वह माँ बाप अपने पास रख लेते थे और इस पैसे से ही बेटी की शादी कर देते थे लेकिन हम ने ऐसा नहीं किया और बच्चों की पहली तनखुआह से ही उन का बैंक अकाउंट खुलवा दिया जिस में उन की पूरी तनखुआह अकाउंट में जमा हो जाती और उन का सारा खर्च हम पहले की तरह उठाते रहते ताकि बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो सकें, इस से बच्चों को बाद में बहुत फायदा हुआ।

दिन बीतते जा रहे थे और ज्ञानो के पति अर्जन सिंह जिन को मैं भा जी कह कर बुलाता था हमारे घर आते और कहते, ” भई शादी के दिन नज़दीक आ रहे हैं और तुम सुस्त बैठो हो “. उन का इस तरह कहना ही हमें बहुत हौसला देता और आज तक वह हमें याद आते हैं। उन्होंने बगैर किसी सुआरथ के हमारे लिए इतने काम किये कि जो किसी और ने नहीं किये, यहां तक कि हमारे अपने घर के लोगों से भी हमें कोई पियार नहीं मिला। उस समय मैं 44 साल का था और कुलवंत भी जवान ही थी और शादी विवाह की बातों से हम अंजान ही थे। ज्ञानो और भा जी ही बड़े थे और वह हमारे लिए सब कुछ थे।

हमारे बहुत से रिश्तेदार यहां हैं लेकिन बुआ और ज्ञानों बहन और या बहादर ने ही ज़्यादा साथ दिया। आज मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि दोस्त तो एक दो ही बहुत होते हैं। खैर ! भा जी एक दिन आये और बोले कि लड़के वाले मैरेज रजिस्टर करने को कह रहे हैं। मैं और कुलवंत ने भी मशवरा किया कि रजिस्ट्रेशन करने में कोई हर्ज़ नहीं है किओंकी गुर्दुआरे में शादी तो बाद में होती रहेगी। एक दिन मैं और पिंकी टाऊनहाल में गए और मैरेज रेजिस्टर के लिए एप्लिकेशन फ़ार्म भर आये, उधर लड़के वाले भी अपने टाऊनहाल में जा कर सब डीटेल लिखवा आये। कुछ हफ्ते बाद हमें मैरेज रजिस्टर का दिन और टाइम की सारी डीटेल घर भेज दी गई और उधर इसी तरह लड़के वालों को बता दिया गया ।

अब हम ने महमानों की आवभगत और भोजन के प्रबंध के लिए शॉपिंग शुरू कर दी और महमानों के लिए खाने का सारा प्रबंध हम ने अपने गार्डन में ही करना था, जिस के लिए एक टैंट की जरुरत थी। उन दिनों टैंट मिलते नहीं थे। हमारे एक पड़ोसी मार्कीटों में कपडे बेचने जाया करते थे और वह वहां मार्किट में अपना टैंट लगाते थे। उस के पास बहुत से पाइप थे जिन को आपस में जोड़ कर टैंट का फ्रेम बन जाता था और उस के ऊपर बहुत बड़ी प्लास्टिक की शीट डाल देते थे। एक दिन ज्ञानो का बेटा बलवंत हमारे घर आया। हम दोनों पड़ोस के घर से वह मार्किट वाले सभी पाइप ले आये और कुछ घंटों में ही वह पाइप आपस में जोड़ कर बहुत बड़ा टैंट का फ्रेम फिक्स कर दिया लेकिन फ्रेम के साइज़ की शीट जिस से हम ने टैंट बनाना था वह मिल नहीं रही थी।

मैंने टेलीफोन डायरेक्ट्री में ढून्ढ लिया, जिस फैक्ट्री में ऐसी शीटें बनती थी। मैंने उन को टैलीफोन किया तो उन्होंने बताया कि वह किसी भी साइज़ की शीट बना देंगे। मैंने सारे फ्रेम का नाप लिया और किंग्जविंफोर्ड टैंट फैक्ट्री में जा पहुंचा और ऑर्डर दे दिया। क़्योंकि दो दिन में बनाने का उन्होंने वादा किया था, इस लिए दो दिन बाद मैं यह शीट ले आया और मैं और बलवंत ने फ्रेम के ऊपर शीट डाल दी और यह टैंट एक छोटे से हाल जैसा बन गया। इस शीट ने इतना काम दिया कि यह शीट बहुत लोगों के घर गई और विवाह शादियों के वक्त उन के गार्डनों की शोभा बनी।

उस समय ऐसे छोटे छोटे समागमों के लिए सब खाने घर ही बनाते थे। सभी औरतें रल मिल कर खाने बना लेती थीं। बड़े पतीले कडछिआं बगैरा गुर्दुआरे से ले आते थे। इस के इलावा ट्रे चमचे ग्लास बगैरा भी सब वहां से ही आते थे और कुर्सियां मेज भी ले आते थे। खाने बनाने का सारा काम हमारी गैरेज में ही होना था। जो लोग गैस के सलंडर किराए पर देते थे, वह हमारे घर के नज़दीक ही थे और इन की दूकान बहुत बड़ी थी, जिस में वह हॉलिडे कैम्पिंग का सामान बेचते थे और गोरे ही इन के ज़्यादा ग्राहक थे। मैं दो सलंडर गाड़ी में रख कर ले आया।

एक दिन मैं और बलवंत गुर्दुआरे गए और स्टोर कीपर से सारे बर्तन ले लिए और बलवंत की वैन में रख कर घर ले आये। फिर हम दुबारा जा कर कुरसीआं मेज भी ले आये। सब कुछ सैट हो गया। रजिस्ट्रेशन से एक दिन पहले औरतें मिल कर समोसे भरने लगीं और तड़के बगैरा भून कर सब तैयार कर लिया गया। हमारी सगी बहन बहनोई और बच्चे भी आ गए थे और बड़े भाई का लड़का अपनी पत्नी और बच्चों को ले कर भी आ गया , बहादर और कमल भी आ गए थे और निंदी तो सुबह से आया हुआ था, घर में बहुत रौनक हो गई थी।

सारा दिन दौड़ धूप जारी रही। दूसरे दिन के लिए सब कुछ तैयार करके टैंट में ही रख दिया गया और उस रात को तेज हवाएं भी चल रही थीं और मुझे बहुत फ़िक्र था कि कहीं टैंट उड़ ना जाए और काम में विघ्न ना पढ़ जाए। अब तो इन बातों को याद करके हंसी आती है लेकिन उस रात मैं फ़िक्र में अच्छी तरह सोया नहीं था और टैंट में ही बैठा रहा, सोचा कि काम हो जाने पर सो लूंगा।

चलता. . . . . . . . . .

 

5 thoughts on “मेरी कहानी 124

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते श्री गुरमैल सिंह जी। बेटी पिंकी की पढ़ाई, फिर नौकरी और विवाह की बाते पढ़कर प्रसन्नता हुई। अभी कुछ देर पहले आस्था चैनल पर स्वामी विवेकानंद जी का प्रवचन सुना। उन्होंने कहा कि ईमानदारी, बुद्धिमत्ता से काम करना और पुरुषार्थ सफलता की गारटी होते हैं। आपने भी जीवन में इनका पालन किया है। जीवन की सफलता का रहस्य इन सूत्रों में छिपा है। हार्दिक धनयवाद। सादर।

    • मनमोहन भाई ,धन्यवाद . जिस देश में हम रहते हैं वहां बहुत लोग बच्चों की तरफ से बहुत दुखी हैं लेकिन हम अपने आप को भाग्यवान ही कहेंगे कि बच्चों से हमें पर्संता ही मिली ,उन्होंने हमें कोई परेशानी नहीं दी और समय सिर हमारे साथ सहमत हो कर अपने अपने घर बसा लिए और आगे इस बात के लिए भी भगवान् का शुकर्गुजार हैं कि हमारे दो पोते तीन दोहते और एक दोहती भी हमारा बहुत सत्कार करते हैं .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आज हमारे पीले रंग की छोटी-सी बहुत सुंदर टेबिल आई है, उस पर मैं शादी के गीतों की ढोलक बजा रही थी और पिंकी की शादी का इतना मनमोहक समाचार आ गया. अति सुंदर व रोचक एपीसोड के लिए आभार.

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आज हमारे पीले रंग की छोटी-सी बहुत सुंदर टेबिल आई है, उस पर मैं शादी के गीतों की ढोलक बजा रही थी और पिंकी की शादी का इतना मनमोहक समाचार आ गया. अति सुंदर व रोचक एपीसोड के लिए आभार.

    • लीला बहन , बहुत बहुत धन्यवाद .यह तो कमाल ही हो गिया कि आप शादी की ढोलक बजा रहे थे, कैसा coincident है .
      हाँ पहले यह एपिसोड दीख नहीं रहा था, अब खोला तो आप का कहा दरुसत हो गिया .

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