गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

इधर  देखूँ   वफ़ा   क्या क्या,
उधर देखूँ   जफ़ा   क्या क्या।

मुसीबत   के    गुज़रने   तक,
हमें  खटका  रहा   क्या क्या।

न   देखो  दिल  के   सौदे   में,
मिला है क्या, गया क्या क्या।

कहीं     ज़ुल्फ़ें,    कहीं    बातें,
उड़ाती   है    हवा   क्या क्या।

ये   चेहरा   दिल  का   पर्दा है,
रहे   इसमें   छुपा   क्या क्या।

है   आदम   खुल्द   से   बाहर,      (खुल्द-स्वर्ग)
न पूछो  ये,  किया  क्या क्या।

हुआ     तर्के  –  मरासिम   भी,    (संबंध विच्छेद)
मगर  थी   इंतिहा   क्या क्या।

बड़े  नाज़ाँ   थे   किस्मत  पर,
बताओ  तो   मिला  क्या क्या।

सफर   में   ‘होश’  उलफ़त  के,
कहें क्या अब दिखा क्या क्या।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

One thought on “ग़ज़ल

  • ये चेहरा दिल का पर्दा है,

    रहे इसमें छुपा क्या क्या। वाह वाह , क्या बात है .

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