ग़ज़ल
ज़ुबान से तो ना लिया नाम तुम्हारा हमने,
खामोशियों से मगर रोज़ पुकारा हमने
लबों पे बात मेरे दिल की कभी आ ना सकी,
आँखों से किया कई बार इशारा हमने
जान जाती है कैसे जिस्म छोड़कर कोई,
तुम जो रूठे तो देखा वो नज़ारा हमने
हर वो शख्स खुश हुआ मेरी तबाही पर,
जहाँ में जिसको भी दिया था सहारा हमने
तनहाई, तोहमतें, बदनामियां और रुसवाई,
किया है तेरे लिए क्या-क्या गवारा हमने
इक तेरा नाम कभी इसमें जुड़ नहीं पाया,
नसीब चाहे अपना कितना संवारा हमने
— भरत मल्होत्रा