राजनीति

कांग्रेस की आपसी कलह से उत्तराखण्ड में लगा राष्ट्रपति शासन

संगठन और सरकार में स्थान और वर्चस्व को लेकर कांग्रेस में अक्सर विरोध के स्वर उठते रहते हैं। यह विरोध व्यक्तिगत हित की खातिर होता है। आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद की खातिर गांधी के समक्ष अपना विरोध प्रदर्शित किया था। वहीं गांधी भी जिन्हें महात्मा कहा जाता है। उन्होंने भी पट्टाभिसीतारमैया के लिए नेता जी सुभाषचन्द्र बोस का खुलकर विरोध किया था। नेताजी के समक्ष पट्टाभिसीतारमैया कुछ नहीं थे लेकिन गांधी ने पट्टाभिसीतारमैया का पक्ष लिया। उत्तराखण्ड में लगे राष्ट्रपति शासन के लिए कांग्रेसी भाजपा पर दोष मढ़ रहे हैं। लेकिन वे स्वयं अपना गिरेबां झांककर नहीं देख रहे हैं कि आखिर यह नौबत क्यों आयी। अगर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा विरोध न करते तो किसकी मजाल थी कि उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगा देता।

सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान और बेहतर प्रशासन के लिए राजनीतिक स्वायत्तता हेतु उत्तरांचल राज्य का गठन 9 नवम्बर 2000 में हुआ। उत्तराखण्ड की राजनीति में अब तक बड़े दो प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस का वर्चस्व रहा। कुल 16 साल का प्रदेश अपने जन्म काल से ही राजनीतिक उपेक्षाओं का शिकार होता रहा है। प्रदेश में पिछले कुछ दिनांे से राजनीतिक अस्थिरता चल रही है। यह पहली घटना नहीं है। इसके पूर्व राजनीतिक उठा पटक तथा घोटालों के आरोप में मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे। कुलमिलाकर इस राजनीतिक अस्थिरता का मार जनता को ही पड़ती रही। जून 2013 के आपदा का घाव अभी भर नहीं पाया था कि कांग्रेस की आपसी कलह से प्रदेश में आई राजनीतिक अस्थिरता से उत्तराखण्ड के विकास पर पहाड़ टूट पड़ा। जंगलों में लगी तबाही माचा रही। प्राकृति जलस्रोत लगभग सूख चूके है ऐसे में जनजीवन प्रभावित है पर इसकी चिन्ता कौन करे।

प्रदेश की राजनीति में भूचाल भाजपा द्वारा 14 मार्च 2016 विधानसभा धेराव तथा स्व.शक्तिमान (घोड़े) का पैर टूटने के बाद से आया। जबकि कांग्रेस के अन्दर कुर्सी पर काब्जा जमाने तथा प्रतिशोध की भावना को जिम्मेदार माना जा रहा है। पूर्व सीएम हरीश रावत तथा विजय बहुगुणा की आपसी स्वार्थ पूर्ण राजनीति की लालसा ने प्रदेश को निराश किया। अपने कार्यकाल में सीएम विजय बहुगुणा आपदा के दौरान राहत कार्यों के में कुछ खास तत्परता नहीं दिखा पाये। पीड़ित जनता कष्ट से कराह रही थीं बहुगुणा दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा सोनिया गांधी से सलाह लेने चले गये। उस समय उत्तराखण्ड कांग्रेस पार्टी के अन्दर आपसी मतभेद चरम पर था।

इधर कांग्रेस पर विपक्ष दबाव बढ़ता जा रहा था। जनता के घाव पर मरहम के नाम पर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बदलने का फैसला ले लिया। नये मुख्य मंत्री बने हरीश रावत। ऐसे में विजय बहुगुणा को निराश होना स्वभाविक था। अब बहुगुण कुछ कर भी नही सकते थे क्योंकि फैसला राष्ट्रीय अध्यक्षा सोनिया गांधी ने लिया था। वक्त थोड़ा सा करवट बदला तो बहुगुणा के चेहरे पर मुस्कान दिखी। अब इस मौके को विजय बहुगुणा भुनाना चाहते है। यही कारण है विजय बहुगुणा के बगावत का। राजनीति में कोई किसी का नहीं होता इस कहावत को सिद्ध करते हुए विजय बहुगुण ने सोनिया गांधी को वक्त का अच्छा सबक सिखाया फोन न उठाकर। उन्हें इंतजार था एक मौके तथा कुछ साथी विधायकों का। जिसमें वो कुछ हद तक सफल तो हुए लेकिन कुर्सी हाथ नहीं लगी। कांग्रेस की आपसी कलह तथा 2017 में कांग्रेस को मात देने का मौका भाजपा को मिलने लगा। इस मौके का फायदा उठाने में भाजपा ने कांग्रेस का मढ़ अपने सर ले लिया लेकिन राह आसान नहीं दिख रही है। पिछले कुछ दिनों से प्रदेश में जनता के मुद्दे नहीं वल्कि कुर्सी की तरकीब सोचने में दोनों प्रमुख दल के नेता जुटे हुए है।

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की मुश्किले और बढ़ गयी है। हरीश रावत एक स्टिंग मामले में बुरी तरह से फंसते नजर आ रहें है। दरअसल विधानसभा में बहुमत साबित करने से दो दिन पहले कांग्रेस के बागियों ने एक न्यूज़ चैनल का विडियो स्टिंग जारी करके सनसनी मचा दी थी। विडियो में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत कथित तौर पर विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए रिश्वत की पेशकश पर किसी से बात कर रहे हैं। इस पूरे मामले जांच सीबीआई कर रहीं। हलांकि हरीश रावत इस पूरे मामले को फरेब बता रहे है। उत्तराखण्ड की राजनीतिक हालत आगे क्या होगा ये तो आने वाला वक्त बतायेगा। हां किसी भी सामाजिक संगठन एवं कार्यकर्ता को एक बात हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि संगठन हो या परिवार दोनों में समन्वय जरूरी होता है। यही उसके विकास की धुरी मानी जाती है। जो अब उत्तराखण्ड कांग्रेस में नहीं दिख रहा। कांग्रेस की आपसी कलह के कारण उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगा।

अमरबहादुर मौर्य