ग़ज़ल : ये कैसा मर्ज है सावन
धरा पे टूट पड़ता है ये कैसा मर्ज है …..सावन ,
धरा के वक्ष पे तेरी उँगलियाँ दर्ज है ….सावन |
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कतारों में खड़े हैं पेड़ प्यासे आप ……….आयेंगे ,
घड़ा काँधे उठाकर आइये अब अर्ज है …सावन |
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नदी के होठ सूखे हैं वादन पे भी फफोले….. हैं ,
बुझा दो प्यास होठों की तुम्हारा फर्ज है सावन |
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मिलकर सुर सुरों से झींग दादुर छेड़ते ..सरगम ,
तुम्हारे गीत गाते हैं तुम्हारी तर्ज है ……सावन |
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ग़ज़ल भी गीत भी तेरे दिए मुक्तक कई मुझको ,
चलो माना तेरा आलोक पर ये कर्ज है …सावन |
— आलोक अनंत
वाह क्या बात है अनन्त जी!!