आंसूओं की ‘कद्र’
इन आंसूओं की अब इस जमाने में ‘कद्र’ नहीं होती,
पर इन आँखों को भी छलके बिना, ‘सब्र’ नहीं होती,
रो रो गुज़र रही है, हर सच्चे इंसान की ज़िन्दगी,
क्यों सुख चैन से उसकी यह उम्र, बसर नहीं होती,
अपना ज़मीर मार कर,यहाँ रोज़ मरते हैं कई लोग,
पर इनकी कहीं “मज़ार” या कहीं “कब्र” नहीं होती,
निर्बल को सता कर कई लोग, रोज़ उठाते है अपना लुत्फ़-
भूलते हैं किसी दुखी आत्मा की आह, ‘बेअसर’ नहीं होती,
प्रभु की शरण में जाओगे तो तुम पा जाओगे पूरा सकून ,
किसी रिश्वत की दलाली कभी ,उस के दर पे नहीं होती,
जियो ख़ुशी से और करते चलो, कुछ पुण्य का भी काम,
‘उसके’ हिसाब किताब में कभी कोई गलती नहीं होती,
— जय प्रकाश भाटिया