अंकुर
सूखे की मार झेल रहे किसानों की मनोस्थिति व्यथित करने वाली होती है परन्तु उनकी आस की फसल ही हमारा पेट भरने में सहायक होती है….
.
बरसने लगीं बूँदें
टप-टप लगातार
फ़िर लगी झड़ी
खारे पानी की
इक धार बही
आँखें आबशार हुयी….
.
ना खेत सिंचे
ना भरीं दरारें
खलिहान सूने
सूखा सूखा
मन भारी
ज़मीं बेज़ार हुयीं….
.
दिन दिन सूरज
तपता सा मन
पर बन पतंग
ढूँढे बादल
आशा की डोर
लम्बी हर बार हुयी…
.
कि उम्मीदों के अँकुर ज़रा सी नमी से ही फूट पड़ते हैं … !!
.
— शिप्रा खरे
सुंदर सृजन
हृदयतल से आभार आदरणीय विभा जी
हृदयतल से आभार आदरणीय विभा जी
वाह उम्मीद की किरण दिखाती हुई कविता!!बधाई हो!!
बहुत बहुत धन्यवाद और आभार रमेश जी