ग़ज़ल : द्वेष ही संसार है
पीर को रख तू छुपा के जख्म ये बाज़ार है
जालिमों की बस्तियां औ द्वेष ही संसार है
झूठ का ओढ़े मुखौटा दर्द देते प्यार से
मशविरा देना यहाँ पर बाखुदा बेकार है
कौन किसका यार है औ कौन दुश्मन है यहां
साथ में हमदर्द के इक प्यार का हथियार है
एक थाली में परोसे द्वेष की वो रोटियाँ
साथ में रखते वही तो प्यार का अचार है
आदमी से आदमी का कोई रिश्ता ही नही
दौलतों के पलड़े में बिकता हुआ व्यवहार है
कागज़ी से फूल हैं वो जो कभी महकें नहीं
बेवज़ह आँखें भिगोना यार अत्याचार है
नब्ज़ को रखना पकड़ के मौत के आगोश तक
ज़िन्दगी के रासते में मिल न जाए हार है
— गुंजन अग्रवाल “गूँज”