मेरी कहानी 131
अपनी कहानी के 129 और 130 काँड में मैं ने अपने दोस्त बहादर के भाई हरमिंदर जिस को हम लड्डा कह कर पुकारते थे, के बारे में काफी कुछ लिखा था। यह नाम बचपन मे माँ की ओर से पुतर मोह में दिया गया नाम था। अगर उस का नाम लड्डा था तो वह था भी लड्डा ही, क्योंकि वह दिल का बहुत अच्छा था। उस को गुस्सा बहुत कम आता था, शरीर का काफी तगड़ा था लेकिन सच्चाई पर डट्ट जाता था और पीछे नहीं हटता था और यही उस की बड़ी खासियत थी। हम से कुछ साल छोटा था और मेरी उस से मुलाकातें इंगलैंड में ही बड़ी थीं। बहादर बहुत छोटा था जब उस के पिता जी सरसाम की बीमारी से पीड़त हो कर यह संसार छोड़ गए थे और वक्त की नज़ाकत को देखते हुए बज़ुर्गों ने बहादर की माँ की शादी बहादर के पिता जी के छोटे भाई केसर सिंह से कर दी थी।
लड्डे के पिता जी सरदार केसर सिंह थे और बहादर केसर सिंह को चाचा जी कह कर पुकारा करता था। बहादर और लड्डा केसर सिंह से बहुत लगाव रखते थे। केसर सिंह ज़्यादा बोलते नहीं थे। जब भी मैं बहादर को मिलने जाता था तो पब्ब को जाते समय बहादर चाचा केसर सिंह को जरूर ले कर जाता था। कभी कभी मैं बहादर को कहता,” यार ! तेरे चाचा जी के सामने कोई गल बात नहीं होती, इसे घर ही रहने दे या यह अपने किसी दोस्त के साथ चला जाए “, बहादर कहता,” यार गुरमेल ! चाचा पीछे अकेला क्या करेगा, ले चलते हैं “, यह सही मानों में बहादर का अपने चाचा केसर सिंह के प्रति लगाव था। पब्ब में जा कर केसर सिंह के साथ ज़्यादा सिआसत की बातें ही करते रहते थे। बहादर का अपने चाचा केसर सिंह से बहुत लगाव था और उस का बहुत सत्कार करता था, इस बात को मुझ से ज़्यादा कोई नहीं जान सकता।
बहादर की शादी बहुत देर पहले हो गई थी और कुछ देर बाद उस की पत्नी कमल अपनी बच्ची किरन के साथ आ गई थी। अब तो घर में सुख हो गया था क्योंकि पहले खाना खुद ही बनाना पड़ता था, घर की सफाई शॉपिंग बगैरा सब काम खुद ही करना पड़ता था और अब यह काम कमल ने सम्भाल लिया था। अब यह मकान house से home हो गया था। घर में रौनक ही रौनक हो गई थी और सब से बड़ी बात किरन के मोह में केसर सिंह मसरूफ ही हो गए थे क्योंकि हर दम उन के मुंह से किनू शब्द ही निकलता था और किनू का मोह भी अपने बाबा जी के साथ बहुत था। किनू लगती भी बहुत पियारी थी, उन के काटे हुए बाल उस को बहुत फबते थे।
लड्डा भी किनू को बहुत पियार करता था। लड्डा भी उस वक्त वैस्टब्रूमविच की बस गैरेज में बस ड्राइवर लगा हुआ था। यह गैरेज हमारी कम्पनी का ही हिस्सा थी। कमल को इंडिया से आई को अभी बहुत देर नहीं हुई थी कि लड्डे ने इंडिया जाने का फैसला कर लिया। जब मैंने लड्डे के मुंह से सुना तो मुझे विशवास नहीं हुआ। मैंने सोचा कि वोह यूं ही बोलता था लेकिन मुझे तभी पता चला जब उस ने सीट बुक करवा ली थी। लड्डा मुझे कहने लगा, ” गुरमेल ! हमारी इतनी ज़मीन जायदाद है जिस को संभालने की अब जरुरत है, मैं वहां जा कर डेयरी और पोल्टरी का बिज़नैस करना चाहता हूँ “, उन की बातों पे मुझे यकीन नहीं आया और सोचा कि वह इंडिया जा कर रह नहीं सकेगा और जल्दी वापस आ जाएगा।
लड्डा इंडिया चला आया और उस ने पोल्टरी और डेयरी का काम शुरू कर दिया लेकिन यहां तक मुझे पता है, उस का पोल्टरी फ़ार्म का काम कामयाब नहीं हुआ था लेकिन डेयरी का काम खूब चल रहा था। जल्दी ही उस ने शादी करवा ली थी। अपने पिता जी के अकाल चलाने पर जब हम सभी इंडिया गए थे तो उस की पत्नी गुरमीत हमारे बच्चों को अपने घर ले जाती थी और उन का मेक अप्प करती रहती थी और लड्डा भी रीटा पिंकी को बहुत पियार करता था। गुरमीत के किसी रिश्तेदार की लड़की की शादी जालंधर में थी और लड्डे ने मुझे भी साथ जाने को बोला था और मैं भी इस शादी में शामिल हुआ था।
इस शादी के बारे में वर्णन करने का मेरा मकसद यह ही है कि मैं यह शादी देख कर इस लिए हैरान हुआ था कि लड़का एक सजी हुई घोड़ी पर जा रहा था, बाजे वाले बाजा बजा रहे थे और औरतें सज धज कर बाजे वालों के पीछे पीछे नाच रही थीं। उस समय मेरे लिए यह एक नई बात थी कि इंडिया कितना आगे बढ़ गया था और हम इंगलैंड में रहते इंडियन अभी वहीँ ही खड़े थे जब इंडिया से रुखसत हुए थे। दुसरी बात थी डिनर की जो बड़े बड़े टेबलों पर सजा हुआ था और महमान अपनी अपनी प्लेटों में खुद अपनी मर्ज़ी के मुताबिक डाल कर जिधर मर्ज़ी ले जाते, यार दोस्त अपने ग्रुपों में बैठे खाते और हँसते। मैंने यह बहुत मज़ेदार महसूस किया किओंकी जब मैने भारत छोड़ा था तो यह सब नहीं होता था। कुछ ही सालों में भारत में इतनी तब्दीली आ गई थी।
इस के बाद मैं लड्डे को 1982 में मिला था जिस के बारे में मैं 129 130 काँड में लिख चुक्का हूँ। एक दफा लड्डे ने मुझे कहा था, ” गुरमेल ! गाँव में रहना बहुत मुश्किल है ” और मुझे साल का तो याद नहीं लेकिन लड्डा सचमुच वापस इंगलैंड आ गया था। जब मुझे पता चला तो मैं और जगदीश उस को मिलने गए थे। तब बहादर ने अपना नया घर ले लिया था। लड्डा बहुत खुश हुआ और हम ने बहुत बातें कीं। कुछ देर बाद ही लड्डा फिर वापस बसों में लग गया। उस का रिकार्ड अच्छा था और आते ही काम शुरू कर दिया। दुःख की बात यह है कि अभी कुछ महीने ही उस ने काम किया था कि उस को स्ट्रोक हो गया और डडली रोड हसपताल में दाखल कर लिया गया।
बहादर का मुझे टेलीफोन आया और हम उसी वक्त बर्मिंघम पहुँच गए। जब मैं और बहादर दोनों वार्ड में गए तो लड्डे को देख कर मुझे धक्का लगा किओंकी लड्डा बेहोश था और इर्द गिर्द मशीनें लगी हुई थीं। दुखी हिरदे से मैंने लड्डे का हाथ धीरे से पकड़ा और बोला, ” लड्डे ! मैं गुरमेल आया हूँ, अगर पहचानता है तो अपना हाथ हिला “. लड्डे ने बड़ी मुश्किल से आँखें खोली और थोड़ा सा हाथ हिलाया। ज़्यादा देर हम रुक्के नहीं किओंकी मिलने वाले और भी आये हुए थे। इस के कुछ दिन बाद ही लड्डे ने हमेशा के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं।
इस दुःख की घड़ी में बहादर को मैं दाद देता हूँ। इस की डीटेल में मैं नहीं जाऊँगा लेकिन बहादर की हर कोशिश यह ही थी कि लड्डे की पत्नी और बच्चे जितनी जल्दी हो सके आ जाएँ और वह फ्यूनरल होने से पहले पहले आ भी गए। मैं और कुलवंत बहादर के घर पहुँच गए और कुछ देर बाद ही लड्डे की पत्नी और बच्चे भी इंडिया से आ गए। आते ही उन्होंने लड्डे के बारे में पुछा लेकिन अभी उन्होंको बताया नहीं गया ताकि वह कुछ खा पी लें। ग्रन्थ साहब की बीड़ उपरले कमरे में शुशोबत थी और ग्रंथि दो दफा पाठ करने आता था।
अब लड्डे की पत्नी गुरमीत और उस के बच्चों को बताना बहुत कठिन था। मैं और बहादर ऊपर गए और ग्रंथि जी को कहा कि वह बताएं कि क्या हो गया था। ऐसी दुर्घटना को बताना कितना मुश्किल होता है और ख़ास कर पत्नी और बच्चों को, यह हम महसूस कर रहे थे। गियानी जी नीचे आ गए और बैठ कर बातें करने लगे और फिर कुछ देर बाद गुरमीत को मुखाबत हो कर बोले ,” बीबा ! अब आप को मज़बूत होना पड़ेगा “, गुरमीत ने पुछा क्या मतलब है आप का ?, तो गियानी जी बोले ,” बीबा हरमिंदर सिंह अब इस दुन्याँ में नहीं रहे ” .
यह सुनते ही गुरमीत ने चीखें मारनी शुरू कर दी। लड्डे का बड़ा लड़का तो सुन कर जैसे पागल हो गया, वह बोले जा रहा था,” रब्ब मेरे सामने आ जाए, मैं उस के कुत्रे कर दूंगा. . . . .” , वह गुस्से में बहुत बोल रहा था, बहादर ने उसे पकड़ा और उसे शांत करने की कोशिश की लेकिन वह ऊंची ऊंची बोले जा रहा था और ज़ार ज़ार रोने लगा। यह रोना धोना कब तक चलता, उबल उबल कर सब शांत हो गए और सारी बात धीरे धीरे गुरमीत को बताई गई। लड्डे की बेटी बहुत रो रही थी। बहुत रात हो गई थी और हम भी वापस आ गए।
अब रोज़ हम बहादर के घर जाते और बैठे रहते। क्रीमेशन से पहले मैं बहादर और परमजीत जो बहादर के ताऊ जी का बेटा है, लड्डे को नहलाने गए। उस का शरीर मोर्चरी में था। मोर्चरी में नहलाने का बहुत अच्छा प्रबंध था। मैं और बहादर ने दही से लड्डे को नहलाया और कपडे पहनाए लेकिन दिल रो रहा था। लड्डे का एक छोटा भाई भी है जिस को गोगी कह कर बुलाते हैं, उस का कुछ पता नहीं था कि वह कहाँ रहता था। बहादर ने रेडिओ पर संदेश दिया कि अगर गोगी यह सुन रहा हो तो जल्दी आ कर मिले लेकिन उस का कुछ पता नहीं चलता था।
बहुत दिन तक रिश्तेदार ख़ास कर लड्डे के बसों वाले दोस्त रोज़ आते थे। लड्डा सब का दोस्त था और फ्यूनरल वाले दिन बहुत लोग आये थे। हाल लोगों से भरा हुआ था। एक सुन्दर बॉक्स में लड्डे का शरीर पड़ा था, जब सविच ऑन हुआ तो बॉक्स धीरे धीरे रेलिंग पर अंदर की ओर जाने लगा और साथ ही पर्दा बंद होने लगा और सैड मयूजिक बजने लगा। रोती हुई गुरमीत और बच्चों को सांत्वना देते हुए बाहर ले आये। लड्डे की पत्नी, उस के बच्चों, बहादर और उस के चाचा जी के मन पर क्या गुज़र रही थी, यह हर कोई समझ सकता है लेकिन मैंने अपना दोस्त खो दिया था।
अपने पियारे दोस्त के छोटे से इतहास के साथ ही मैं बहादर की श्लाघा किये बगैर नहीं रह सकता, उस ने एक और बहुत बड़ा काम किया था, एक सूख गए बृक्ष को फिर से हरा भरा कर दिया था जिस को अब फल लग गए हैं। बहादर और लड्डे का छोटा भाई गोगी जिस के बारे में मैं लिख चुक्का हूँ, उस का कोई पता नहीं चल रहा था। लड्डे को गुज़रे काफी अर्सा हो गया था। एक दिन बहादर के दरवाज़े पर दस्तक हुई, जब दरवाज़ा खोला तो गोगी बहादर के पैरों पर गिर पड़ा और मुआफी मांगने लगा कि वह गुमराह हो गया था। बहादर उस को अंदर ले आया। गोगी को डिप्रैशन हो गया था। बहुत महीनों तक उस का इलाज चलता रहा। यह कहानी बहुत लम्बी है जिस की डीटेल में मैं नहीं जाऊँगा। बहादर ने अपने भाई गोगी के लिए बहुत कुछ किया। एक लड़की से उस की शादी करवा दी और अब गोगी की लड़की है जो काफी बड़ी हो गई है। गोगी का अपना घर और अच्छा कारोबार है, हंसी ख़ुशी रह रहे हैं और यह सेहरा बहादर के सर ही जाता है।
लड्डा तो इस संसार में नहीं रहा लेकिन उस की पत्नी और बच्चे अच्छी तरह इंगलैंड में सैटल हैं। बच्चों की शादियां हो गई हैं और लड्डे का परिवार सुख से रह रहा है। बहादर के चाचा जी बहुत वर्ष हुए रिटायर हो कर कभी इंडिया आ जाते, कभी इंगलैंड लेकिन कुछ साल बाद वह इंगलैंड में ही यह संसार छोड़ गए थे। बहादर की माँ इंगलैंड में ही थी, कभी गुरमीत के साथ रहने लगती, कभी बहादर के पास आ जाती। बहादर की माँ बहुत भोली थी, ज़्यादा नहीं बोलती थी लेकिन सब से मुहबत करती थी लेकिन बहुत साल हुए वह भी इस संसार को छोड़ गई थी और उस के सन्मान में मैंने छोटा सा सन्मान पत्र गुर्दुआरे में पड़ा था। इस सन्मान पत्र में वह पुरानी यादें ही थीं।
वाकई यह संसार एक मिथ्य ही है, कोई जनम लेता है, कोई चले जाता है, एक दिन हम भी नहीं रहेंगे और नए महमान हमारी जगह ले लेंगे। जग्ग वाला मेला यारो, थोड़ी देर का, हँसते ही रात जाए, पता नहीं सवेर का।
चलता. . . . . . . . . . .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. जग्ग वाला मेला यारो, थोड़ी देर का, हँसते ही रात जाए, पता नहीं सवेर का. सुख-दुःख मिश्रित एपीसोड.
धन्यवाद लीला बहन , बस यही संसार है . एक दो पीडीओं तक हम अपने बजुर्गों को जानते हैं और इसी लिए उन से लगाव होता है ,इस के पीछे कितनी पीड़ी गुज़र गईं, ना तो हम उन के बारे में जानते हैं और ना ही उन से कोई लगाव है .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की कहानी कुछ दर्द भरी है। कइयों की मृत्यु का जिक्र हुआ है। संसार एक सच है। इसे समझ कर ही जीना चाहिए। जीव यहाँ कर्म करने और पूर्व कर्मों के फल भोगने के लिए आता है। यह दार्शनिक सिद्धांत है जिसका आधार तर्क़, युक्तियाँ, ज्ञान, विज्ञानं, दर्शन व ईश्वरीय ज्ञान वेद है। एक दिन निश्चित ही हमें संसार छोड़ कर जाना है। उतना ही सच यह भी है कि फिर हमारे कर्मों के अनुसार हमारा जन्म होगा और हम मनुष्य या पशु आदि किसी योनि में सुख व दुःख भोगेंगे। शायद कबीर जी ने कहा है कि “जब हम पैदा हुवे जग हंसा हम रोये ऐसी करनी कर चलों हम हंसे जग रोये।” सबक अपना अपना ज्ञान वा सोच है। कुछ तो मृत्यु रूपी सच्चाई का नाम लेने से भी परहेज करते हैं। आपने हाउस और होम की बात की है। यह होम शब्द के बारे में हमारे कुछ विद्वानों के विचार हैं कि अंग्रेजी का होम शब्द संस्कृत का होम शब्द ही है। होम का अर्थ होता है हवन। प्राचीन काल में विवाह होने के बाद पति पत्नी दोनों मिलकर प्रतिदिन सुबह व शाम हवन करते थे। इसी कारण घर को होम कहा जाता है। अंग्रेजी में जिस ने भी घर के लिए होम शब्द को प्रचलित किया वह बहुत ज्ञानी व्यक्ति रहा होगा यह सिद्ध होता है। आज की अच्छी किश्त के लिए हार्दिक धन्यवाद। सादर।
मनमोहन भाई , आप की गियान भरपूर बातें अछि लगीं .सच है ,किसी ने भी इस संसार में हमेशा नहीं रहना, मृत्तु से डरना नासमझी है .मनमोहन भाई ,हम ने तो पहले ही अपनी अर्थी का इंतजाम कर रखा है . हम ने इंशोरेंस की हुई है और उन को साढ़े आठ हज़ार पाऊंड दे रखे हैं ताकि हमारे मरने के बाद बच्चों को कोई परेशानी ना आये और ना ही उन का कोई खर्च हो क्योंकि उन को भी घर चलाना है और अचानक मृतु हो जाने से जो दुःख होता है घर वालों को, वोह तो समझ आती ही है लेकिन उसी समय आर्थिक बोझ एक और परेशानी बन जाती है ( यहाँ फ़िऊन्रल पर काफी खर्च होता है ,इस लिए गोरे भी अपना फ़िऊन्रल प्लैन पहले ही तैयार कर लेते हैं ) .एक बात हम ने बच्चों को और भी बता दी है की सिर्फ फैमिली फ़िऊन्रल ही करना है , ज़िआदा इकठ करने से परहेज़ करें क्योंकि दुःख तो सिर्फ घर वालों को ही होता है ,शेष सब एक फौर्मैलिती ही है .
सुख दुःख से भरी पाती लगी …..
विभा बहन , दुःख सुख से भरा संसार ही तो है यह , दुखों का कारण ढूँढने के लिए ही तो सिद्धार्थ ने घर छोड़ा था .