ग़ज़ल
कटी थोड़ी कहकहों में थोड़ी आहों में कटी
ज़िंदगी अपनी मगर तेरी पनाहों में कटी
गम ना कर तू हश्र में हो जाएगा इसका हिसाब
काम कुछ अच्छे किए या फिर गुनाहों में कटी
रात भर पीते रहे और दिन में तौबा खूब की
कुछ मैकदे में कट गई कुछ सजदागाहों में कटी
दोस्ती से बढ़ के दुनिया में कोई दौलत नहीं
खुद तो मुफलिस ही थे लेकिन बादशाहों में कटी
क्या खबर उनको कि पत्थर पे भी नींद आ सकती है
हर रात जिनकी खूबसूरत ख्वाबगाहों में कटी
राह के पत्थर से बढ़कर कुछ भी ना थी मंजिलें
शौक-ए-सफर ऐसा था पूरी उम्र राहों में कटी
— भरत मल्होत्रा
बहुत खूब !
बहुत खूब !