दोहे
प्रकृति के सुकुमार कवि, सुमित्रा नंदन पंत जी को समर्पित मेरी आज की दोहावली…
सब कुछ धारण कर रही, धरती धरती धीर।
मानव तु भी तो समझ, इसके मन की पीर॥
कटते जंगल कर रहे, मन ही मन संताप।
व्याकुल धरती हो रही, रोज बढ रहा ताप॥
प्रकृति पर हो रहे, नित्य नये प्रहार।
खेतो में उगने लगे, माॅल और बाजार॥
तेरी इस करतूत का, भारी होगा मोल।
लालच का पर्दा हटा, मानव आंखे खोल॥
सूख रहे दरिया सभी, सूख रहे तालाब।
नदियों में पानी नही, धरती खोती आब॥
मनमानी करते रहे, यूं ही यदि दिन रात।
एक रोज बतलायेगी, यह तुमको औकात॥
चीर हरण मत कीजिये, करती रोज पुकार।
क्रोधित यदि ये हो गयी, होगा सब संघार॥
अब भी यदि रोका नही, तुमने अत्याचार।
सब पाने की होड में, सब जाओगे हार॥
बंसल विनती कर रहा,धरो धरा का ध्यान।
वन जंगल को जानिये, जीवन का वरदान॥
सतीश बंसल
बढिया !
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