मुंसिफ ने बिन खता ही ख़तावार लिख दिया
मुंसिफ ने बिन खता ही ख़तावार लिख दिया।
बिना गुनाह मुझको गुनहग़ार लिख दिया॥
हर राह अपनों ने छला मुझको कदम कदम।
फिर मुझे ही झूठ का किरदार लिख दिया ॥
रोशन किये उसूलों के चिराग उम्र भर।
पर उजालों ने हमें अंधकार लिख दिया॥
बच कर चला बदी की राह से तमाम उम्र।
फिर भी अपनों ने हमें बदकार लिख दिया॥
करते रहे हम तो वफ़ा अपनों से गैरों से।
हर सख़्श ने फिर भी हमें गद्दार लिख दिया॥
हमराह भी था हर कदम हमदम भी था मगर।
उसने भी अब निबाह नागवार लिख दिया॥
इल्ज़ाम भला किसको दूं हालात का बंसल।
बस वक्त ने किस्मत को ज़ार ज़ार लिख दिया॥
सतीश बंसल
प्रिय सतीश भाई जी, अति उत्तम गज़ल के लिए आभार.
बहुत अच्छी ग़ज़ल !
गुनहगारों में शामिल हूँ गुनाहों से नहीं वाक़िफ़।
सज़ा पाने को हाज़िर हूँ खुदा जाने ख़ता क्या है!
शुक्रिया आद.. विजय जी
बहुत अच्छी ग़ज़ल !
गुनहगारों में शामिल हूँ गुनाहों से नहीं वाक़िफ़।
सज़ा पाने को हाज़िर हूँ खुदा जाने ख़ता क्या है!