उठ रहा बिन आग के ही जब धुआं क्या कीजिये।
उठ रहा बिन आग के ही जब धुआं क्या कीजिये।
वहम की होती नही कोई दवा क्या कीजिये॥
धडकनें तो आज भी आवाज देती हैं मगर।
सुनके भी करदे कोई जब अनसुना क्या कीजिये॥
पत्थरों के शहर को दिखला रहे थे आईना।
बुत परस्ती को न भाई ये अदा क्या कीजिये॥
था मेरा हमराज कल तक हमसफर था वो मेरा।
दौर-ए-गर्दिश में हुआ हमसे जुदा क्या कीजिये॥
जिनके सीने में कोई अहसास ही बाकी न हो।
रहम की उम्मीद फिर उनसे भला क्या कीजिये॥
चल रहा है हर कदम डर डर के सहम सहम कर।
छाछ से डरता है दूध का जला क्या कीजिये॥
खत्म कर डाला मेरे अपनो ने ही जब सिलसिला।
फिर भला गैरों से शिकवा और गिला क्या कीजिये॥
सतीश बंसल