ग़ज़ल
सच्चाई को इस दुनिया में बस इल्ज़ाम मिलता है,
मक्कारी हो चालाकी हो तो ईनाम मिलता है
मिली ना नौकरी मुझको किसी सरकारी दफ्तर में,
कहते हैं यहाँ बेईमानों को ही काम मिलता है
उन्हीं को छोड़ देते हैं तड़पता हम बुढ़ापे में,
जिन माँ-बाप से हमको हमारा नाम मिलता है
ज़रूरत ही नहीं ईमान की शायद किसी को अब,
हरेक बाज़ार में ये कौड़ियों के दाम मिलता है
काँटे की तरह चुभता हूँ उनकी आँखों में अब मैं,
जो कहते थे कि तुमको देखकर आराम मिलता है
किताबें रोज़ छपती हैं हम जैसे नक्कालों की,
मगर खुद्दार शायर आज भी गुमनाम मिलता है
— भरत मल्होत्रा