अपना नहीं है कोई कमाल.
आज बात की टमाटरों से,
दिखते थे वे लालमलाल,
हमने पूछा, ”शिमला होकर आए हो क्या,
या गुस्से से सुर्ख़ हैं गाल!”
”शिमला नहीं गए हैं भाई,
गुस्से का भी नहीं सवाल,
महंगाई ने लाल किया है,
अपना नहीं है कोई कमाल.”
आज बात की टमाटरों से,
दिखते थे वे लालमलाल,
हमने पूछा, ”शिमला होकर आए हो क्या,
या गुस्से से सुर्ख़ हैं गाल!”
”शिमला नहीं गए हैं भाई,
गुस्से का भी नहीं सवाल,
महंगाई ने लाल किया है,
अपना नहीं है कोई कमाल.”
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सुंदर अर्थपूर्ण कविता के लिए बधाई।
प्रिय सखी नीतू जी, अति सुंदर टिप्पणी के लिए आभार.
लीला बहन ,कविता बहुत अछि लगी ,इस छोटी सी कविता में एक किताब ही छुपी हुई है ,टमाटर के शब्दों पर हंसें या रोयें, बात एक जैसी ही है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
नमस्ते आदरणीय बहिन जी। टमाटर पर आपकी कविता अच्छी लगी। आश्चर्य है कि ईश्वर सभी वस्तुएं हमें मुफ्त में देता है और हम अपने स्वार्थ के लिए उन्हें महगा कर खुस होते हैं। महंगाई के पैसे जिन लोगो की जेब में जा रहें हैं वह बहुत खुस होंगे। टमाटर का कोई कसूर नहीं है। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, अति सुंदर व सार्थक टिप्पणी के लिए आभार.