कविता : एक राह पथरीली-सी
पथरीली-सी वो राह
जिस पर चलकर
घिस लिए थे उसने
जानबूझकर अपने तलवे
हर उठता क़दम
करता है पथरीलापन कम करने की कोशिश
ताकि सुरक्षित रहें
उसकी बेटियों के तलवे….
लहूलुहान तलवों की कहानी
जानती हैं बेटियाँ
तभी तो पथरीली राह पर
चलने से पहले
पहनती हैं
मज़बूत इरादों और हौसलौं की जूतियाँ
जिनकी दूर से आती
चरमराहट से
सहम जाते हैं
नुकीले पत्थर भी
और ओढ़ लेते हैं
नरमाई की दूब!!
वो जानते हैं
कि
अस्तित्व की इस लड़ाई में
बचाना है खुद को अगर
तो लेना ही पड़ेगा
दूब का सहारा
वरना
चर-चर करती मज़बूत जूतियों की ठोकरें
हिला कर रख देंगी वजूद…
ऐ नर्म दूब!!!!
धिक्कार है तुझ पर!!!
मत छुपा नुकीलेपन को
सामने आने दे
और
उसे उखाड़ फेंकने में
मदद कर ….
छुप तो नहीं पाएंगे वो देर तक
पर जब उखाड़े जाएंगे
तो याद रख
पहले तेरा वजूद खत्म किया जाएगा….
— शिवानी शर्मा, जयपुर
शिवानी जी सुन्दर कविता के लिए बधाई